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रघुवंश ।

गोद में लेने पर अज-मलिन मृग-लेखा लिये हुए प्रातःकालीन चन्द्रमा के समान-मालूम होने लगा। अपनी प्राणोपम रानी की अचानक मृत्यु हो जाने से अज को असीम दुःख हुआ । उसका स्वाभाविक धीरज भी छूट गया । उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई । बहुत तपाये जाने से लोहा भी नरम हो जाता है-नरम ही नहीं, गल तक जाता है-फिर यदि सन्ताप की आग से तपे हुए शरीरधारी विकल होकर रोने लगें तो आश्चर्य ही क्या है ? दुःख से व्याकुल होकर अज ने, रुंधे हुए कण्ठ से, इस प्रकार, विलाप करना आरम्भ कियाः-

"फूल बड़ी ही कोमल चीज़ है । शरीर में छू जाने से, हाय हाय ! फूल भी यदि प्राण ले सकते हैं तो फिर ऐसी और कौन सी चीज़ संसार में होगी जो मनुष्य को मारने में समर्थ न हो ? विधाता जब मारने पर उतारू होता है तब तिनका भी वत्र हो जाता है-तब जिस चीज़ से वह चाहे उसी से मार सकता है । अथवा यह कहना चाहिए कि यमराज कोमल वस्तु को कोमल ही से मारता है । मैं यह इस लिए कहता हूँ, क्योंकि इस तरह का एक दृष्टान्त मैं पहले भी देख चुका हूँ। देखिए कमलिनी भी कोमल होती है और पाला भी कोमल ही होता है। परन्तु इसी पाले से ही बेचारी कमलिनी मारी जाती है। अच्छा,यदि इस माला में प्राण ले लेने की शक्ति है तो यह मेरे प्राण क्यों नहीं ले लेती ? मैं भी तो इसे अपनी छाती पर रक्खे हूँ! बात यह है कि ईश्वर की इच्छा से कहीं विष अमृत का काम देता है, कहीं अमृत विष का । भगवान् चाहे जो करे ! अथवा मेरे दुर्भाग्य से ब्रह्मा ने इस माला से ही वज्र का काम लिया; इसे ही उसने वज्र बना दिया। ज़रा इस अघटित घटना को तो देखिए । इसने पेड़ को तो नहीं गिराया, पर उसकी डालों पर लिपटी हुई लता का नाश कर दिया ! इसी से कहता हूँ कि यह सारी करामात मुझ पर रूठे हुए विधाता की है।

"प्रिये ! बोल । बड़े बड़े सैकड़ों अपराध करने पर भी तूने कभी मेरा तिरस्कार नहीं किया । सदाही तू मेरे अपराध क्षमा करती रही है। इस समय तो मुझ से कोई अपराध भी नहीं हुआ। फिर भला क्यों तू मुझ निरपराधी से नहीं बोलती ? बोलना क्यों एकाएक बन्द कर दिया ? क्या मैं अब तेरे साथ बात चीत करने योग्य भी नहीं रहा ?