पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१७८

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आठवाँ सर्ग।

"तेरी मन्द और उज्ज्वल मुसकान मुझे नहीं भूलती । मुझे इस समय यह सन्देह हो रहा है कि तूने मुझे सच्चा प्रेमी नहीं, किन्तु छली और शठ समझा । तेरे मन में निश्चय ही यह धारणा हो गई जान पड़ती है कि मेरा प्रेम बनावटी था। इसीसे तू,बिना मेरी अनुमति लिये ही,अप्रसन्न होकर,परलोक को चली गई-उस परलोक को जहाँ से तेरा लौट आना किसी तरह सम्भव नहीं। मुझे इस बात का बड़ा ही दुःख है कि तुझे निष्प्राण देख कर मेरे भी प्राण, जो कुछ देर के लिए तेरे पीछे चले गये थे, तुझे छोड़ कर क्यों लौट आये? क्यों न वे तेरे ही पास रह गये ? अब वे दुःसह दुःख सहते हुए अपनी करनी पर रोवे । इन पापियों ने अच्छा धोखा खाया ! परिश्रम के कारण उत्पन्न हुए पसीने के बूंद तो अब तक तेरे मुँह पर वर्तमान हैं; पर स्वयं तू वर्तमान नहीं। तेरी आत्मा तो अस्त हो गई, प्राण तो तेरे चले गये; पर पसीने के बूंद तेरे बने हुए हैं ! देहधारियों की इस असारता को धिक्कार! मैंने कभी भी तेरी इच्छा के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया। वैसा काम करना तो दूर रहा, कभी इस तरह के विचारों को भी मैंने अपने मन में नहीं आने दिया। फिर मेरे साथ इतनी निठुराई क्यों ? यह सच है कि मैं पृथ्वी का भी पति कह- लाता हूँ। परन्तु यह केवल कहने की बात है, यथार्थ बात नहीं । मेरे मन का गहरा अनुराग तो तुझी में रहा है। एक मात्र तुझी को मैं अपनी पत्नी समझता रहा हूँ, पृथ्वी को नहीं । लोग चाहे जो कहैं; सच वही है जो मैं कह रहा हूँ।

"हे सुन्दर जंघाओं वाली ! पवन की प्रेरणा से तेरी फूल से गुंथी हुई, बलखाई हुई, भौरों के समान काली काली ये अलकें, इस समय,हिल रही हैं । इन्हें इस तरह हिला डुला कर पवन मुझे इस बात की प्राशा सी दिला रहा है कि तु अभी, कुछ देर में, फिर उठ बैठेगी-तू मरी नहीं । इससे, प्रिये ! सचेत होकर-रात के समय,एकाएक चमक कर, हिमालय की गुफा के भीतरी अन्धकार को ओषधि की तरह-शीघ्र ही तू मेरे दुःख को दूर कर दे। उठ बैठ ! अचेतनता छोड़। बिखरी हुई अलकों वाला तेरा यह मौन मुख, इस समय, उस कमल के समान हो रहा है जो रात हो जाने से बन्द हो गया हो और जिसके भीतर भौरों

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