पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१७९

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रघुवंश ।

की गुजार न सुनाई देती हो । सोते हुए निःशब्द कमल के समान तेरे इस मुख को देख कर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। रात से चन्द्रमा का वियोग हो जाने पर फिर भी वह उसे मिल जाती है। इसी तरह चकवे के साथ चकवी का भी फिर मिलाप हो जाता है। इसी से वे दोनों,किसी तरह,अपने वियोग-दुःख को सह लेते हैं,क्योंकि उन्हें अपनी अपनी प्रियतमाओं के फिर मिलने की आशा रहती है। परन्तु तेरे तो फिर मिलने की मुझे कुछ भी आशा नहीं । तू तो सदा ही के लिए मुझे छोड़ गई। फिर,भला,तेरा वियोग मुझे आग की तरह क्यों न जलावे ? हाँ, सुजंघे ! एक बात तो बता। नये निकले हुए लाल लाल पत्तों के बिछौने पर भी लेटने से तेरा मृदुल गात दुखने लगता था । सो वही अब जलती हुई चिता पर कैसे चढ़ेगा ? उसकी ज्वाला वह किस तरह सहेगा ? यह सोच कर मेरी तो छाती फटी जाती है ! देख,तेरी इस करधनी की क्या दशा हुई है ! इस पर तेरी बड़ी ही प्रीति थी । तू सदा इसे कमर पर ही रखती थी । एकान्त की पहली सखी तेरी यही है। तेरा चलना-फिरना और विलास-विभ्रम आदि बन्द हो जाने से, इसने भी,इस समय,मौन धारण कर लिया है । यह जान गई है कि अब तू ऐसी सोई है कि फिर जागने की नहीं। इसी से,इसे इस तरह चुपचाप पड़ी देख, कोई यह नहीं कह सकता कि यह मरी नहीं, जीती है । देखने से तो यही जान पड़ता है कि तेरे वियोग से व्याकुल होकर इसने भी तेरा अनुगमन किया है। परलोक जाने के लिए यद्यपि तू उतावली हो रही थी, तथापि,मुझे धीरज देने के लिए,तू अपने कई गुण यहाँ छोड़ती गई । अपने मधुर वचन कोयलों को, मन्दगमन हंसियों को, चञ्चल दृष्टि मृगनारियों को और हाव-भाव पवन की हिलाई हुई लताओं को तू देती गई। यह सब सच है,और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये चिह्न छोड़ कर तूने मुझ पर बड़ी कृपा की; परन्तु इनमें से एक की भी पहुँच मेरे हृदय तक नहीं हो सकती। तेरे वियोग की व्यथा से मेरा हृदय इतना व्याकुल हो रहा है कि यदि ये उस तक पहुँचे भी, तो भी, इन से उसकी सान्त्वना न हो सके। उसे अवलम्ब-दान देने में ये बिलकुल ही असमर्थ हैं।

"इस आम और प्रियंगुलता पर तेरी बड़ी ही प्रीति थी। तू ने इन