पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२७
आठवाँ सर्ग।

दोनों का एक जोड़ा बनाना चाहा था। तेरी इच्छा थी कि इन दोनों का विवाह हो जाय । परन्तु इनका मङ्गल-मय विवाह-विधान किये बिना ही तू जा रही है । यह बहुत ही अनुचित है। भला ऐसा भी कोई करता है ? देख,यह तेरा अशोक-वृक्ष है। पैरों से छ कर तू ने इसका दो हद किया था। इस पर अब शीघ्र ही फूल खिलेंगे। यदि तू जीवित रहती तो इन्हीं फूलों को तू अपने बालों में गूंथती; यहो तेरी अलकों की शोभा बढ़ाते । परन्तु, हाय ! यही फूल अब मुझे तेरी अन्त्येष्टि क्रिया में लगाने पड़ेंगे! तू ही कह, ऐसा हृदयविदारी काम किस तरह मुझ से हो सकेगा ? हे सुन्दरी! नूपुर बजते हुए तेरे चरणों के स्पर्श को याद सा करता हुआ यह अशोक, फूलरूपी आँसू बरसा कर, तेरे लिए रो रहा है । इस पर तेरा बड़ा ही अनुग्रह था। इसी से, तेरे पैरों के जिस स्पर्श के लिए और पेड़ लालायित रहते थे उसी को तू ने इसके लिए सुलभ कर दिया था । तेरे उसी अनुग्रह को याद करके, तेरे सोच में, यह आँसू गिरा रहा है। अपनी साँस के समान सुगन्धित बकुल के फूलों की जिस सुन्दर करधनी को तू मेरे साथ बैठी हुई गूंथ रही थी,उसे अधगूंथी ही छोड़ कर तू सदा के लिए सो गई । हे किन्नरों के समान कण्ठवाली ! यह तेरा सोना कैसा ? इस तरह का व्यवहार करना तुझे शोभा नहीं देता। तेरे सुख में सुखी और दुख में दुखी होने वाली ये तेरी सखियाँ हैं । प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान छोटा, तथापि सुन्दर और हम लोगों की आशा का आधार,यह तेरा पुत्र है । एक मात्र तुझ से ही अनुराग रखने वाला यह तेरा प्रेमी मैं हूँ। तिस पर भी इन सारे प्रेम-बन्धनों को तोड़ कर तू ने यहाँ से प्रस्थान कर दिया ! निष्ठुरता की हद हो गई।

"मेरा सारा धीरज छूट गया । मेरे सांसारिक सुखों ने जवाब दे दिया। मेरा गाना-बजाना बन्द हुआ । ऋतु-सम्बन्धी मेरे उत्सव समाप्त हो चुके। वस्त्राभूषणों की आवश्यकता जाती रही । घर मेरा सूना हो गया। हाय ! हाय ! मेरी इस दुःख-परम्परा का कहीं ठिकाना है ! मैं किस किस बात को सोचूँ ? मेरे घर की तू स्वामिनी थी। सलाह करने की आवश्यकता होने पर मेरी तू सलाहकार थी। एकान्त में मेरी तू सखी थी। और, सङ्गीत आदि ललित-कलाओं में मेरी तू प्यारी विद्यार्थिनी थी। निर्दयी मृत्यु ..