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रघुवंश।

स्वभाव ही है। जिसे लोग जीना कहते हैं वह तो एक प्रकार का विकार है। जितने बुद्धिमान और विद्वान हैं वे मरने को स्वाभाविक और जीने को अस्वाभाविक समझते हैं । इस दशा में जो जीव- धारी क्षण भर भी साँस ले सकें-क्षण भर भी जीते रह सकें-उन्हें इतने ही को बहुत समझना चाहिए । उनके लिए यही क्या कम है ? यह थोड़ा लाभ नहीं ? जब अपना कोई प्रेमपात्र मर जाता है तब मूढ़ मनुष्यों को ऐसा मालूम होता है जैसे उनके हृदय में किसी ने भाला गाड़ दिया हो । परन्तु जो पण्डित हैं उन्हें ठीक इसका उलटा भास होता है। उनका हृदय तो और हलका हो जाता है। उन्हें तो ऐसा जान पड़ता है कि उनके हृदय में गड़े हुए भाले को किसी ने खींच सा लिया। बात यह है कि समझदार आदमी मृत्यु को सुख-प्राप्ति का द्वार समझते हैं । वे जानते हैं कि यदि मृत्यु न हो तो मनुष्य के भावी कल्याण का द्वार ही बन्द सा पड़ा रह जाय । अपने शरीर और आत्मा का भी तो साथ सदा नहीं रहता । उनका भी सदा ही संयोग और वियोग हुआ करता है । इस दशा में यदि बाहरी विषयों अथवा पदार्थों से किसी का सम्बन्ध छूट जाय-यदि उनसे उसे सदा के लिए अलग होना पड़े-तो, आपही कहिए, समझदार आदमी को क्यों सन्तप्त होना चाहिए ? ज़रा इस बात को तो सोचिए कि जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध भी स्थायी नहीं तब और वस्तुओं का सम्बन्ध किस तरह अविच्छिन्न रह सकता है ? आप तो जितेन्द्रिय जनों में सब से श्रेष्ठ हैं । इससे साधारण आदमियों की तरह आपको शोक करना उचित नहीं । यदि वायु के वेग से पेड़ों की तरह पर्वत भी हिलने लगे तो फिर उन दोनों में अन्तर ही क्या रहा ? फिर तो पर्वतों की 'अचल' संज्ञा व्यर्थ हो गई समझिए।"

उदारात्मा वशिष्ठ का यह उपदेश, उस मुनिवर के मुख से सुन कर,अज ने कहा-"गुरुवर का कथन बहुत ठीक है।" यह कह कर और महर्षि के वचनों को सादर स्वीकार करके उसने उस मुनि को भक्तिभाव-पूर्वक बिदा किया । परन्तु उसका हृदय इन्दुमती के शोक से इतना परिपूर्ण हो रहा था कि उसमें महर्षि वशिष्ठ के उपदेश को ठहरने के लिए जगह न मिली । अतएव उसे, उस मुनि के साथ ही, वशिष्ठ के पास लौट सा जाना पड़ा।