पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३८
रघुवंश।

प्रभाव,मन्त्र और उत्साह नामक तीनों शक्तियों के साथ, सुरेश्वर इन्द्र पृथ्वी पर उतर आया हो।

शत्रु-नाश का उपाय करने में वह बड़ाही निपुण था। महारथी भी वह एक ही था । अतएव उसे एक समय इन्द्र की सहायता करनी पड़ो । दैत्यों के मुकाबले में देवताओं के लिए घनघोर युद्ध करके उसने अद्भुत वीरता दिखाई । युद्ध में देवताओं ही की जीत हुई। दशरथ के शरों के प्रभाव से देवनारियों का सारा डर छूट गया। दैत्यों के उत्पात से उन्हें छुटकारा मिल गया । इससे वे दशरथ की बड़ी कृतज्ञ हुई और उसकी भुजाओं के प्रबल पराक्रम की उन्होंने बड़ी बड़ाई की । उसकी प्रशंसा में उन्होंने गीत तक गाये । इस युद्ध में धनुष हाथ में लिये और अपने रथ पर सवार महाबली दशरथ ने, इन्द्र के आगे बढ़ कर, अकेले ही इतना भीषण युद्ध किया कि युद्ध के मैदान में उड़ी हुई धूल से सूर्य छिप सा गया । यह देख दशरथ ने दैत्यों के रुधिर की नदियाँ बहा कर सूर्य का अवरोध करने वाली उस धूल को एकदम दूर कर दिया-उसे साफ़ धो डाला। ऐसा उसे कई दफ़े करना पड़ा, एक ही दफ़े नहीं।

दशरथ ने अपने भुजबल से अपार सम्पत्ति एकत्र कर ली। एक भी दिशा ऐसी न थी जहाँ से वह ढेरों सोना न लाया हो । इस प्रकार बहुत साधनसञ्चय हो जाने पर, तमोगुण का सर्वथा त्याग करके, उसने यज्ञ के अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिये । सिर पर शोभा पाने वाले मुकुट को तो उतार कर उसने रख दिया और यज्ञ की दीक्षा ग्रहण कर ली । तदनन्तर, उसने यूप-नामक सोने के यज्ञ- स्तम्भों से सरयू और तमसा के तीर परिपूर्ण कर दिये। उन स्तम्भों से इन दोनों नदियों के तटों की शोभा बहुत ही बढ़ गई । यज्ञ का आरम्भ होने पर दशरथ ने मृगचर्म धारण किया। कमर में कुश की मेखला पहनी । एक हाथ में पलाश का दण्ड और दूसरे में हिरन का सींग लिया । बोलना छोड़ दिया-मौन धारण कर लिया। यज्ञानुष्ठान के इन चिह्नों से सुशोभित हुए उसके शरीर में प्रवेश करके अष्टमूर्ति महादेव ने उसे बहुत ही अधिक मनोहर कर दिया । उसमें अनुपम कान्ति उत्पन्न हो गई। शङ्कर के निवास से दशरथ का शरीर अलौकिक शोभाशाली हो गया। उसके यज्ञकार्य निर्विन समाप्त हुए । अन्त में