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नवां सर्ग।

उस जितेन्द्रिय राजा ने अवभृथ-नामक पवित्र स्नान करके यज्ञ के कामों से छुट्टी पाई।

राजा दशरथ का महत्व और प्रभुत्व त्रिलोक में विख्यात था महिमा,प्रभुता और शूरवीरता आदि गुणों के कारण देवता भी उसका आदर करते थे । और, वह देवताओं की सभा में बैठने योग्य था भी। नमुचि के शत्रु, वारिवर्षी, इंद्र को छोड़ कर और किसी के भी सामने उसने कभी अपना उन्नत मस्तक नहीं झुकाया ।

राजा दशरथ बड़ा ही प्रतापी हुआ। उसमें अपूर्व बल-विक्रम था । देश-देशान्तरों तक में उसका आतङ्क छाया हुआ था। प्रभुता और अधिकार में वह इन्द्र, वरुण, यम और कुवेर के समान था। नये फूलों से ऐसे धुरन्धर चक्रवर्ती राजा की पूजा सी करने के लिए वसन्त ऋतु का आगमन हुआ।

वसन्त का आविर्भाव होते ही भगवान सूर्य ने अपने सारथी अरुण को आज्ञा दीः-"रथ के घोड़ों को फेर दो । अब मैं धनाधिप कुवेर की बस्ती वालो दिशा की तरफ़ जाना चाहता हूँ।" अरुण ने इस आज्ञा का तत्काल पालन किया और सूर्य ने, उत्तर की तरफ़ यात्रा करने के इरादे से, मलयाचल को छोड़ दिया । परिणाम यह हुआ कि जाड़ा कम हो गया और प्रातःकाल की वेला बड़ी ही मनोहारिणी मालूम होने लगी।

पादपों से परिपूर्ण वन-भूमि में उतर कर वसन्त ने, क्रम क्रम से, अपना रूप प्रकट कियाः-पहले तो पेड़ों पर फूलों की उत्पत्ति हुई । फिर नये नये कोमल पत्ते निकल आये । तदनन्तर भारों की गुजार और कोयलों की कूक सुनाई पड़ने लगी।

सज्जनों का उपकार करने ही के लिए राजा लोग सम्पत्ति एकत्र करके उसे, अपने सुनीति सम्बन्धी सद्गुणों से, बढ़ाते हैं । वसन्त भी औरों ही के उपकार के लिए कमलों को सरोवरों में प्रफुल्लित करता और उनमें सरसता, सुगन्धि तथा पराग आदि उत्पन्न करके उनकी उपयोगिता को बढ़ाता है। वनस्थली में उतर कर, इस दफ़े, उसने अपने इस काम को बहुत ही अच्छी तरह किया । फल यह हुआ कि राजाओं से सम्पत्ति पाने की अभिलाषा से याचक लोग जैसे उनके पास दौड़ जाते हैं वैसे ही वसन्त