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रघुवंश।

डर जाने पर जानवर कैसी चेष्टा करते हैं। शिकारी को जानवरों की चेष्टा ही से यह मालूम हो जाता है कि इस समय वे क्रोध में हैं और इस समय डरे हुए हैं । शिकार में दौड़-धूप का काम बहुत रहता है । इससे म ष्य श्रमसहिष्णु भी हो जाता है। बिना थकावट के वह बड़े बड़े श्रमसाध्य काम कर सकता है । श्रम करने से शरीर फुर्तीला रहता है । इनके सिवा शिकार में और भी कितने ही गुण हैं।"

मन्त्रियों की सम्मति अनुकूल पाकर दशरथ ने शिकारी कपड़े पहने । शिकार का सब सामान साथ लिया। अपने पुष्ट कंठ में धनुष डाला। मृग, सिंह और वराह आदि जङ्गली पशुओं से परिपूर्ण वन में प्रवेश करने के इरादे से, उस सूर्य के समान प्रतापी राजा ने अपनी राजधानी से प्रस्थान कर दिया । अपने साथ उसने चुनी हुई थोड़ी सी सेना भी ले ली। उसके घोड़ों की टापों से इतनी धूल उड़ी कि आकाश में उसका चॅदोवा सा तन गया । वन के पास पहुँच कर दशरथ ने वन के ही फूलों की मालाओं से अपने सिर के बाल बाँधे और पेड़ों की पत्तियों ही के रङ्ग का कवच शरीर पर धारण किया । फिर, एक तेज़ घोड़े पर सवार होकर वह वन के उस भाग में जा पहुँचा जहाँ रुरु नाम के मृगों की बहुत अधिकता थी। उस समय घोड़े के उछलने-कूदने और सरपट भागने से उसके कानों के हिलते हुए कुण्डल बहुत ही भले मालूम होने लगे। दशरथ का वह शिकारी वेश सचमुच ही बहुत मनोहर था। उसे देखने की इच्छा वन देवताओं तक को हुई। अतएव उन्होंने, कुछ देर के लिए, पतली पतली लताओं के भीतर अपनी आत्माओं का प्रवेश करके, भारों की पाँतियों को अपनी आँखें बनाया। फिर, उन्होंने सुन्दर आँखों वाले, और न्यायसङ्गत शासन से कोसल-देश की प्रजा को प्रसन्न करने वाले, दशरथ को जी भर कर देखा।

राजा ने वन के जिस भाग में शिकार खेलने का निश्चय किया था वहाँ शिकारी कुत्ते और जाल ले लेकर उसके कितने ही सेवक पहले ही पहुँच गये थे। उनके साथ ही उसके कितने ही कर्मचारी, शिकारी और सिपाही भी पहुँच चुके थे । उन्होंने वहाँ जितने चोर, लुटेरे और डाकू थे सब भगा दिये । वन की दावाग्नि भी बुझा दी । राजा के पहुँचने के पहले ही