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रघुवंश।

आड़ में कर लिया। उसने मानों कहा- "मैं अपने पति की सहचरी हूँ। विधवा होकर मैं अकेली जीना नहीं चाहती । इससे पहले मुझे मार डाल ।" यह अलौकिक दृश्य देख कर उस धनुषधारी का हृदय दया सेज्ञआर्द्र हो पाया। बात यह थी कि वह स्वयं भी आदर्शप्रेमी था और प्रेम की महिमा अच्छी तरह जानता था । अतएव,उसने ऐसे प्रेमी जोड़े को मारना मुनासिब न समझा । फल यह हुआ कि कान तक खींचे गये बाण को भी उसने धनुष से उतार लिया । दूसरे हिरनों पर बाण छोड़ने की इच्छा रहते भी, उसकी कड़ी से भी कड़ी मुट्ठी ढीली होगई-कान तक जा जाकर भी उसका हाथ पीछे लौट लौट आया । भयभीत हुई हिरनियों की आँखे देखते ही उसे अपनी प्रौढ़ा रानियों के कटाक्षों का स्मरण हो आया। इस कारण, प्रयत्न करने पर भी, उसके हाथ से बाण न छूटा ।

तब उसने सुवर मारने का विचार किया। उस समय वे कुण्डों के भीतर मोथ नामक घास खोद खोद कर खा रहे थे । ज्योंही उन्होंने राजा के आने की आहट पाई त्योंही तत्काल वे कीचड़ से निकल भागे । भागते समय उनके मुँहों से माथे के तिनके गिरते चले गये और उनके भीगे हुए खुरों के चिह्न भी मार्ग में साफ साफ़ बनते गये । मोथे के इन अंकुरों और पैरों के इन चिह्नों से राजा को मालूम हो गया कि इसी रास्ते सुवर भागे हैं । बस, फिर क्या था, तुरन्त ही उसने उनका पीछा किया । वह कुछ ही दूर आगे गया होगा कि भागते हुए सुवर उसे दिखाई दिये । घोड़े पर बैठे हुए राजा ने, अपने शरीर के अगले भाग को कुछ झुका कर, धनुष पर बाण रक्खा । सुवर भी, उस पर धावा करने के इरादे से, शरीर के बाल खड़े कर के,पेड़ों से सट कर खड़े हो गये । इतने में इतने वेग और इतनी शीघ्रता से दशरथ के बाण छूटे कि उन्होंने सुवरों और उन पेड़ों को, जिनसे सटे हुए वे खड़े थे, एकही साथ छेद दिया। सुवरों को मालूम ही न हुआ कि कब बाण छूटे और कब वे छिदे । छिद जाने पर उन्हें इसकी खबर हुई ।

इतने में एक जङ्गली भैंसा बड़े वेग से उस पर आक्रमण करने दौड़ा। यह देख राजा ने एक बाण खींच कर इतने ज़ोर से उसकी आँख पर मारा कि भैंसे के सारे शरीर को बेध कर, पूंछ में रुधिर लगे बिना ही, वह बाहर जमीन पर जा गिरा । परन्तु पहले उसने उस भैंसे को गिरा दिया,