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कालिदास का समय।


विद्यमान न था ? सम्भव है कि कालिदास के समय में रहा हो और पीछे से नष्ट हो गया हो। कुछ भी हो, चैटर्जी महाशय की सब से नवीन और मनोरञ्जक कल्पना यही है। आपकी राय में रघुवंश और कुमारसम्भव ५८७ ईसवी के पहले के नहीं।

चैटर्जी महोदय ने अपने मत को और भी कई बातों के आधार पर निश्चित किया है। कालिदास के काव्यों में ज्योतिषशास्त्र-सम्बन्धिनी बातों के जो उल्लेख हैं उनसे भी आपने अपने मत की पुष्टि की है। कविकुलगुरु शैव थे; अथवा यों कहना चाहिए कि उनके ग्रन्थों में शिवोपासनाद्योतक पद्य हैं। ऐतिहासिक खोजों से आपने यह सिद्ध किया है कि इस उपासना का प्राबल्य, बौद्ध मत के ह्रास होने पर, छठी सदी में ही हुआ था। यह बात भी आपने अपने मत को पुष्ट करने वाली समझा है। आपकी सम्मति है कि रघु का दिग्विजय काल्पनिक है। यथार्थ में रघु सम्बन्धिनी सारी बातें यशोधर्म्मा विक्रमादित्य से ही सम्बन्ध रखती हैं। रघुवंश के :-

(१) प्रतापस्तस्य भानोश्च युगपद् व्यानशे दिशः।
(२) ततः प्रतस्थ कौवेरी भास्वानिव रघुदि शम्॥
(३) सहस्रगुणमुत्सृष्टुमादत्त हि रसं रविः।
(४) मत्त भर दनात्कीर्ण व्यक्तविक्रमलक्षणम्॥


इत्यादि और भी कितने ही श्लोकों में जो 'रवि,' 'भानु' और 'भास्वान्' आदि शब्द आये हैं उनसे आपने विक्रमादित्य के 'आदित्य' का अर्थ लिया है और जहाँ 'विक्रम' और 'प्रताप' आदि शब्द आये हैं वहाँ उनसे 'विक्रम' का। इस तरह आपने सिद्ध किया है कि यशोधा विक्रमादित्य ही को लक्ष्य करके कालिदास ने इन श्लिष्ट श्लोकों की रचना की है। अतएव वे उसी के समय में थे। उस ज़माने का इतिहास और कालिदास के ग्रन्थों की अन्तर्वर्ती विशेषतायें इस मत को पुष्ट करती हैं। यही चैटर्जी महाशय की गवेषणा का सारांश है। इन विद्वानों की राय में विक्रमादित्य कोई नाम-विशेष नहीं, वह एक उपाधिमात्र थी।

अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास के काव्यों में जो समानता पाई जाती है उसके विषय में चैटर्जी महाशय का मत है कि दोनों कवियों के विचार लड़ गये हैं। अश्वघोष ने कालिदास के काव्यों को देखने के अनन्तर