पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२०३

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रघुवंश ।

किनारे बेत के वृक्षों के भीतर से,किसी के रोने की आवाज़ आई । उसे सुनते ही राजा घबरा उठा और रोने वाले का पता लगाने के लिए वह तुरन्त ही उस जगह जा उपस्थित हुआ । वहाँ देखता क्या है कि एक मुनिकुमार बाण से बिधा हुआ तड़प रहा है और उसके पास ही उसका घड़ा पड़ा है। इस पर दशरथ को बड़ा दुःख हुआ । उसने भी अपने हृदय के भीतर बाण घुस गया सा समझा । वह प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा तत्कालही घोड़े से उतर पड़ा और उस शरविद्ध बालक के पास जाकर उसने उसका नाम-धाम पूछा । घड़े पर शरीर रख कर उसके सहारे पड़े हुए बालक ने, टूटे हुए शब्दों में, किसी तरह, बड़े कष्ट से उत्तर दिया:--"मैं एक ऐसे तपस्वी का पुत्र हूँ जो ब्राह्मण नहीं । मुझे आप ऐसा ही बाण से छिदा हुआ मेरे अन्धे माँ-बाप के पास पहुँचा दीजिए।" राजा ने तत्कालही उसकी आज्ञा का पालन किया । उसके माँ-बाप के पास पहुँच कर राजा ने निवेदन किया कि यह दुष्कर्म भूल से मुझसे हो गया है। जान बूझ कर मैंने आपके पुत्र को नहीं मारा।

मुनि-कुमार के अन्धे मां-बाप के एकमात्र वही पुत्र था। उसकी यह गति हुई देख उन दोनों ने बहुत विलाप किया। तदनन्तर, पुत्र के हृदय में छिदे हुए बाण को उन्होंने दशरथ ही के हाथ से निकलवाया । बाण निकलते ही बालक के प्राण भी निकल गये । तब उस बूढ़े तपस्वो ने हाथों पर गिरे हुए अाँसुओं ही के जल से दशरथ को शाप दिया:-

"मेरी ही तरह, बुढ़ापे में, तुम्हारी भी पुत्रशोक से मृत्यु होगी ।" प्रथमापराधी दशरथ ने यह शाप सुन कर-पैर पड़ जाने से दब गये,अतएव विष उगलते हुए साँप के सदृश उस तपस्वी से इस प्रकार प्रार्थना की:-

"भगवन् ! आपने मुझ पर बड़ी हो कृपा की जो ऐसा शाप दिया । मैं आपके इस शाप को शाप नहीं, किन्तु अनुग्रह समझता हूँ। क्योंकि,अब तक मैं नं पुत्र के मुख-कमल की शोभा नहीं देखी। पर वह आपकी बदौलत देखने को मिल जायगी । सच है, ईधन पड़ने से बढ़ी हुई आग,खेत की ज़मीन को जला कर भी, उसे बीज उपजाने वाली,अर्थात् उर्वरा,कर देती है।"