पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२१

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भूमिका।


अपना ग्रन्थ नहीं बनाया। दो कवियों के विचारों का लड़ जाना सम्भव है। पर क्या यह भी सम्भव है कि एक के काव्य के पद के पद, यहाँ तक कि प्रायः श्लोकार्द्ध के श्लोकार्द्ध तद्वत् दूसरे के दिमाग से निकल पड़ें? अस्तु, इन बातों का निर्णय विद्वान् ही कर सकते हैं। हम तो यहाँ उनकी राय मात्र लिखे देते हैं।

अच्छा यह तो सब हुआ। पर एक बात हमारी समझ में नहीं आई। यदि कालिदास को चन्द्रगुप्त, कुमारगुप्त, समुद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त या और किसी गुप्तनरेश किंवा यशोधर्म्मा का कीर्ति गान अभीष्ट था तो उन्होंने साफ़ साफ़ वैसा क्यों न किया ? क्यों न एक अलग ग्रन्थ में उनकी स्तुति की ? अथवा क्यों न उनका चरित या वंशवर्णन स्पष्ट शब्दों में किया ? गुप्त, स्कन्द, कुमार, समुद्र, चन्द्रमा, विक्रम और प्रताप आदि शब्दों का प्रयोग करके छिपे छिपे क्यों उन्होंने गुप्त-वंश का वर्णन किया ? इस विषय में बहुत कुछ कहने को जगह है।

जैसा ऊपर, एक जगह, लिखा जा चुका है, पुरातत्व के अधिकांश विद्वानों का मत है कि ईसा के ५७ वर्ष पूर्व भारत में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा ही न था। उसके नाम से जो संवत् प्रचलित है वह पहले मालव संवत् कहलाता था। पीछे से उसका नाम विक्रम संवत् हुआ।

सारांश यह कि कालिदास विक्रमादित्य के सभा पण्डित ज़रूर थे; पर दो हज़ार वर्ष के पुराने काल्पनिक विक्रमादित्य के सभा-पण्डित न थे। ईसा के पाँच छः सौ वर्ष बाद मालवा में जो विक्रमादित्य हुआ-चाहे वह यशोधर्म्मा हो, चाहे और कोई-उसी के यहाँ वे थे। पर प्रसिद्ध विद्वान चिन्तामणिराव वैद्य, एम० ए०, ने विक्रम संवत् पर एक बड़ाही गवेषणापूर्ण लेख लिख कर इन बातों का खण्डन किया है। उन्होंने ईसा के पहले एक विक्रमादित्य के अस्तित्व का ग्रंथ लिखित प्रमाण भी दिया है और यह भी सिद्ध किया है कि इस नाम का संवत् उसी प्राचीन विक्रमादित्य का चलाया हुआ है। अतएव वैद्य महाशय के लेख का भी सार सुन लीजिए।

डाकूर कीलहान के मन में, नाना कारणों से, विक्रम संवत् के विषय में एक कल्पना उत्पन्न हुई। उन्होंने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि इस संवत् का जो नाम इस समय है वह आरम्भ में न था। पहले वह मालव-