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दसवाँ सर्ग।

इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा न जानने योग्य भगवान की इस प्रकार स्तुति करके देवताओं ने उन्हें प्रसन्न किया। जो कुछ उन्होंने कहा उसे परमेश्वर की प्रशंसा नहीं, किन्तु उनके गुणों का यथार्थ गान समझना चाहिए। क्योंकि, देवताओं का कथन सत्यता से भरा हुआ था। उसमें अतिशयोक्ति न थी। एक अक्षर भी उन्होंने बढ़ा कर नहीं कहा।

देवताओं का कथन समाप्त होने पर भगवान् ने उनसे कुशल-समा. चार पूंछा । इससे देवताओं को सूचित हो गया कि भगवान् उन पर प्रसन्न हैं। इस पर उन्होंने भगवान् से यह निवेदन किया कि रावणरूपी समुद्र, मर्यादा को तोड़ कर, समय के पहले ही, प्रलय करना चाहता है। इससे हम लोग अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं।

देवताओं से भय का कारण सुन चुकने पर, विष्णु भगवान् के मुख से बड़ी ही गम्भीर वाणी निकली। उसकी ध्वनि में समुद्र की ध्वनि डूब गई- उसने समुद्र की ध्वनि को भी मात कर दिया । समुद्र-तट के पर्वतों की गुफ़ाओं में घुस कर वह जो प्रतिध्वनित हुई तो उसकी गम्भीरता और भी बढ़ गई । पुराण-पुरुष विष्णु के कण्ठ, ओंठ, तालू आदि उच्चारणस्थानों से निकलने के कारण उस वाणी की विशुद्धता का क्या कहना । उसने अपना जन्म सफल समझा । वह कृतार्थ हो गई । भगवान् के मुख से निकलने, और उनके दाँतों की कान्ति से मिश्रित होने, से वह-चरण से निकली हुई ऊर्ध्ववाहिनी गङ्गा के समान-बहुत ही शोभायमान हुई। विष्णु भगवान ने कहा:-

"देहधारियों के सत्व और रजोगुण को जिस तरह तमोगुण दबा लेता है उसी तरह राक्षस रावण ने तुम्हारे महत्व और पराक्रम को दबा लिया है। यह बात मुझ से छिपी नहीं। अनजान में हो गये पाप से साधुओं का हृदय जैसे सन्तप्त होता है वैसे ही रावण से त्रिभुवन सन्तप्त हो रहा है। यह भी मुझे अच्छी तरह मालूम है। इस सम्बन्ध में इन्द्र को मुझ से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं । क्योंकि, हम दोनों का एक ही काम है। उनके काम को मैं अपना ही काम समझता हूँ। क्या अपनी सहायता करने के लिए अग्नि कभी पवन से प्रार्थना करता है ? अग्नि की सहायता करना तो पवन का कर्तव्य ही है-बिना कहे ही वह अग्नि

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