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रघुवंश ।

क्या कहना ? वे बेचारी तो और भी अधिक भयभीत थीं। अतएव जब उन्होंने सुना कि रावण के मारने के लिए परमपुरुष परमेश्वर ने अपनी आत्मा को, राम, लक्ष्मण आदि चार मूत्तियों में विभक्त करके, अवतार लिया है तब उनके आनन्द का पारावार न रहा । बिना धूल की स्वच्छ वायु के बहाने उन्होंने ज़ोर से साँस ली। उन्होंने मन में कहा:-"आह ! इतने दिनों बाद हमारी आपदाओं के दूर होने का समय आया ।” सूर्य और अग्नि भी उस राक्षस के अन्याय और अत्याचार से पीड़ित थे । अतएव,सूर्य ने विमल और अग्नि ने निधूम होकर मानो यह सूचित किया कि रामावतार ने हमारे भी हृदय की व्यथा कम कर दी-हम भी अब अपने को सुखी हुआ ही सा समझते हैं।

उस समय एक बात यह भी हुई कि राक्षसों की सौभाग्य-लक्ष्मी के अश्र-बिन्दु, रावण के किरीट की मणियों के बहाने, पृथ्वी पर टपाटप गिरे। रावण के किरीट की मणियाँ क्या गिरौं, राक्षसों की सौभाग्य-लक्ष्मी ने आँसू गिरा कर भावी दुर्गति की सूचना सी दी । इस अशकुन ने मानों यह भविष्यवाणी की कि अब राक्षसों के बुरे दिन आ गये ।

राजा दशरथ के पुत्र का जन्म होते ही आकाश में देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजा कर आनन्द मनाया। जन्मोत्सव का आरम्भ उन्हों ने किया। पहले देव-दुन्दुभियाँ बजी, पीछे दशरथ के यहाँ तुरहियाँ और नगाड़े आदि । इसी तरह मङ्गल-सूचक उपचारों का प्रारम्भ भी देवताओं ही ने किया। पहले उन्हों ने दशरथ के महलों पर कल्पवृक्ष के फूल बरसाये। तदनन्तर, कुल की रीति के अनुसार, राजा के यहाँ कलश, बन्दनवार और कदली-स्तम्भ आदि माङ्गलिक वस्तुओं के स्थापन, बन्धन और आरोपण आदि की क्रियायें हुई।

रामादि का जन्म न हुआ था तभी दशरथ के हृदय में तत्सम्बन्धी आनन्द उत्पन्न हो गया था। इस हिसाब से दशरथ का हृदयानन्द रामलक्ष्मण आदि से जेठा हुआ । जात-कर्म आदि संस्कार हो चुकने पर, धाय का दूध पीनेवाले राजकुमार, उम्र में अपने से जेठे, पिता के उस आनन्द के साथ ही साथ, बढ़ने लगे। वे चारों स्वभाव ही से बड़े नम्र थे। शिक्षा से उनका नम्रभाव-घी, समिधा आदि डालने से अग्नि के स्वाभा-