पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२१८

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ग्यारहवाँ सर्ग।

हो गये । अपना अपना धनुष उन्होंने उठा लिया और पिता के पास बिदा होने गये । बड़े भक्ति-भाव से उन्होंने पिता के पैरों पर सिर रख दिये । उस समय स्नेहाधिक्य के कारण राजा का कण्ठ भर आया। उसकी आँखों से निकले हुए आंसू, पैरों पर पड़े हुए राम-लक्ष्मण के ऊपर, टपाटप गिरने लगे । उनसे उन दोनों की चोटियाँ भीग गई-आँसुओं से उनके सिर के बाल कुछ कुछ आर्द्र हो गये । खैर, किसी तरह, पिता से बिदा होकर और अपना अपना धनुष सँभाल कर वे विश्वामित्र के पीछे पीछे चले । पुर- वासी उन्हें टकटकी लगा कर देखने लगे। उस समय राम-लक्ष्मण के मार्ग में, पुरवासियों की चावभरी दृष्टियों ने तोरण का काम किया । मार्ग में, रामलक्ष्मण के सामने सब तरफ से आई हुई दृष्टियों की मेहराबें सी बनती चली गई।

विश्वामित्र ने दशरथ से राम और लक्ष्मण ही को माँगा था । उन्हें इन्हीं दोनों की आवश्यकता थी । अतएव राजा ने अपने पुत्रों के साथ सेना न दी ; हाँ आशीष अवश्य दी । उसने आशीष ही को राम-लक्ष्मण की रक्षा के लिए यथेष्ट समझा । इसी से उसने आशीष ही साथ कर दी, सेना नहीं। इसके बाद वे दोनों राज- कुमार अपनी माताओं के पास गये और उनके पैर छूकर महाते- जस्वी विश्वामित्र के साथ हो लिये । उस समय मुनि के मार्ग में प्राप्त होकर वे ऐसे मालूम हुए जैसे गति के वशीभूत होकर सूर्य के मार्ग में फिरते हुए चैत और वैशाष के महीने मालूम होते हैं।

राजकुमार बालक तो थे ही । इस कारण चपलता उनमें स्वाभाविक थी। उनकी भुजायें तरङ्गों के समान चञ्चल थौँ । वे शान्त न रहती थीं । मार्ग में, चलते समय भी, कुछ न कुछ करती ही जाती थीं । परन्तु उनकी ये बाल-लीलायें बुरी न लगती थीं। वे उलटा भली मालूम होती थीं । वर्षाऋतु में उद्धव और भिद्य नामक नद, अपने नाम के अनुसार, जैसी चेष्टा करते हैं वैसी ही चेष्टा राम और लक्ष्मण की भी थी। उनकी चेष्टा और चपलता उद्धत होने पर भी जी लुभाने वाली थी।

महामुनि विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को बला और अतिबला नाम की दो विद्यायें सिखा दी। उनके प्रभाव से उन्हें जरा भी थकावट न मालूम हुई । चलने से उन्हें कुछ भी श्रम न हुआ । यद्यपि वे महलों के भीतर रत्न-