पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२२

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कालिदास का समय। १३


संवत् के नाम से उल्लिखित होता था। अनेक शिला-लेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर उन्होंने यह दिखाया कि ईसा के सातवें शतक के पहले लेखों और पत्रों में इस संवत् का नाम मालव-संवत् पाया जाता है। उनमें अङ्कित "मालवानां गणस्थित्या” पद का अर्थ उन्होंने लगाया-मालव देश की गणना का क्रम। डाकूर साहब का कथन है कि ईसा के छठे शतक में यशोधर्म्मा नाम का एक प्रतापी राजा मालवा में राज्य करता था। उसका दूसरा नाम हर्षवर्धन था। उसने ५४४ ईसवी में, हूणों के राजा मिहिरगुल को मुलतान के पास कोरूर में परास्त करके हूणों का बिलकुलही तहस नहस कर डाला। इस जीत के कारण उसने विक्रमादित्य उपाधि ग्रहण की। तबसे उसका नाम हुआ हर्षवर्धन विक्रमादित्य। इसी जीत की खुशी में उसने पुराने प्रचलित मालव-संवत् का नाम बदल कर अपनी उपाधि केयअनुसार उसे विक्रम संवत् कहे जाने की घोषणा दी। साथ ही उसने एक बात और भी की। उसने कहा, इस संवत् को ६०० वर्ष का पुराना मान लेना चाहिए, क्योंकि नये किंवा दो तीन सौ वर्ष के पुराने संवत् का उतना आदर न होगा। इसलिए उसने ५४४ में ५६ जोड़ कर ६०० किये। इस तरह उसने इस विक्रम-संवत् की उत्पत्ति ईसा के ५६ या ५७ वर्ष पहले मान लेने की आज्ञा लोगों को दी।

इस संवत् के सम्बन्ध में जितने वाद, विवाद और प्रतिवाद हुए हैं, सब का कारण डाकूर कीलहान का पूर्वोक्त लेख है। पुराने जमाने के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में "मालवानां गणस्थित्या" होने से ही क्या यह सिद्ध माना जा सकता है कि इस संवत् का कोई दूसरा नाम न था ? इसका कोई प्रमाण नहीं कि जिस समय के ये लेख और पत्र हैं उस समय के कोई और ऐसे लेख या पत्र कहीं छिपे हुए नहीं पड़े जिनमें यही संवत् विक्रम संवत् के नाम से उल्लिखित हो ? देखना यह चाहिए कि ईस्वी सन् के ५७ वर्ष पहले मालवा में कोई बड़ी घटना हुई थी या नहीं और विक्रमादित्य नाम का कोई राजा वहाँ था या नहीं।

ज़रा देर के लिए मान लीजिए कि इसका आदिम नाम मालव-संवत् ही था। अच्छा तो इस नाम को बदल कर कोई 'विक्रम संवत्' करेगा क्यों ? कोई भी समझदार आदमी दूसरे की चीज़ का उल्लेख अपने नाम से नहीं