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रघुवंश ।

यह वही आश्रम था जहाँ तपस्विवर गौतम की पत्नी अहल्या को क्षण भर इन्द्र से भेंट हुई थी। तबसे वह शिला को शकल में वहीं पड़ी थी। इस तरह पड़े उसे बहुत काल बीत गया था। परन्तु, रामचन्द्र की पाप-प्रणाशिनी चरणरज की कृपा से, सुनते हैं, वह फिर पूर्ववत् स्त्री हो गई और उसे अपना सुन्दर शरीर फिर मिल गया।

राम और लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जनकपुर पहुँच गये। अर्थ और काम को साथ लिये हुए मूर्त्तिमान् धर्म के समान उनके आने का समाचार सुन कर नरेश्वर जनक ने पूजा की सामग्री साथ ली और आगे बढ़ कर उनसे भेंट की। राम-लक्ष्मण को देख कर पुरवासियों के आनन्द की सीमा न रही । उन्होंने उन दोनों भाइयों को, आकाश से पृथ्वी पर उतर आये हुए पुनर्वसुओं के सदृश, समझा। उनकी सुन्दरता पर वे मोहित हो गये और बड़े चाव से नेत्रों द्वारा उन्हें पीने से लगे । उस समय उन्होंने, अपने इस काम में, पलक मारने को बहुत बड़ा विघ्न समझा। उनके मन में हुआ कि यदि पलकें न गिरती तो इन राजकुमारों को निर्निमेष-दृष्टि से लगातार देख कर हम अपनी दर्शनेच्छा को अच्छी तरह पूर्ण कर लेते । पलक मारने से वह पूर्ण नहीं होती; कसर रह जाती है।

यज्ञ का अनुष्ठान-उस यज्ञ का जिसमें यूप नामक खम्भों की आवश्यकता होती है-समाप्त होने पर, कुशिकवंश की कीत्ति बढ़ानेवाले विश्वामित्र ने, मौका अच्छा देख, मिथिलेश से कहा:-"रामचन्द्र आपका धनुष देखना चाहते हैं। दिखा दीजिए तो बड़ी कृपा हो।"

विश्वामित्र के मुँह से यह सुन कर जनकजी सोच-विचार में पड़ गये। रामचन्द्र बड़े ही प्रसिद्ध वंश के बालक थे । रूप भी उनका नयनाभिराम था। अतएव जनक प्रसन्न तो हुए, परन्तु जब उन्होंने उस धनुष की कठोरता और अपनी कन्या के विवाह-विषय में अपनी प्रतिज्ञा का विचार किया तब उनको दुःख हुआ। उन्होंने मन में कहा कि धनुष झुका लेना बड़ा कठिन काम है; मुझसे बड़ी भूल हुई जो मैंने कन्यादान का मोल उसे चढ़ा लेना निश्चित किया । वे विश्वामित्र से बोले:-

"भगवन् ! जो काम बड़े बड़े मतवाले हाथियों से भी होना कठिन है उसे करने के लिए यदि हाथी का बच्चा उत्साह दिखावेगा तो अवश्य ही