पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२२५

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रघुवंश ।

को देखा। वह धनुष यद्यपि पर्वत के समान कठोर था, तथापि राम को वह इतना कोमल मालूम हुआ जितना कि राम को उसका कुसुमचाप कोमल मालूम होता है । अतएव,उन्हें इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ाने में ज़रा भी परिश्रम न पड़ा । बात की बात में, बिना विशेष प्रयत्न के ही, उन्होंने यह कठिन काम कर दिया । प्रत्य- ञ्चा चढ़ा कर उन्होंने उसे इतने ज़ोर से खींचा कि वह तडाका टूट गया और वज्राघात के समान कर्णकर्कश शब्द हुआ। घोरनाद करके उस टूटे हुए धनुष ने महाक्रोधी परशुराम को इस बात की सूचना सी की कि क्षत्रियों का बल फिर बढ़ चला है; उनका प्रताप और पौरुष अब फिर उन्नत हो रहा है।

महादेव का धनुष तोड़ कर अपने प्रबल पौरुष का परिचय देने वाले रामचन्द्र के पराक्रम की जनक ने बड़ी बड़ाई की। उन्होंने कहा कि कन्या का मोल मुझे मिल गया। मेरी प्रतिज्ञा को राम ने पूर्ण कर दिया । तदनन्तर मिथिलेश ने पेट से न पैदा हुई, मूत्ति मती लक्ष्मी के समान,अपनी कन्या रघुवंश-शिरोमणि राम को अर्पण करने का वचन दे दिया। राजा जनक सत्यप्रतिज्ञ थे । इस कारण,प्रतिज्ञा की पूर्ति होते ही उन्होंने तत्क्षण ही कन्यादान का निश्चय किया । अतएव परमतेजस्वी और तपोनिधि विश्वामित्र के सामने उन्होंने राम को कन्या दे दी। विश्वामित्र ही को अग्नि सा समझ कर उन्हीं को जनक ने कन्यादान का साक्षी बनाया।

महातेजस्वी मिथिलेश ने कहा, अब महाराज दशरथ को बुलाना चाहिए। अतएव उन्होंने अपने पूजनीय पुरोहित के द्वारा कोशलेश के पास यह सन्देश भेजा :-"महाराज, मेरी कन्या का ग्रहण कर के मेरे निमि-कुल को अपना सेवक बनाने की कृपा कीजिए ।" इधर जनक ने इस प्रकार का सन्देश भेजा उधर दशरथ के मन में अकस्मात् यह इच्छा उत्पन्न हुई कि जैसा मेरा पुत्र है वैसी ही पुत्रवधू भी यदि मुझे मिल जाती तो बहुत अच्छा होता। दशरथ यह सोचही रहे थे कि जनकजी का पुरोहित जा पहुँचा और उनकी मनचीती बात कह सुनाई । क्यों न हो! पुण्यवानों की मनोकामना, कल्पवृक्ष के फल के सदृश, तुरन्त ही परिपक्क हो जाती है। कल्पवृक्ष से प्राप्त हुए फल कभी कच्चे नहीं होते-वे सदा पके पकाये ही मिलते हैं। इसी तरह पुण्यवान पुरुषों के मन में आई हुई बात भी,