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ग्यारहवाँ सर्ग।

आने के साथ ही, फलवती हो जाती है। उसकी सफलता के लिए ठहरना नहीं पड़ता।

मिथिला से आये हुए ब्राह्मण का दशरथ ने अच्छा आदर-सत्कार किया। उससे वहाँ का सारा वृत्तान्त सुन कर इन्द्र के साथी दशर- थजी बहुत खुश हुए। वे बड़े स्वाधीन स्वभाव के थे । उन्होंने कहा, अब देरी का क्या काम ? चलही देना चाहिए । बस, तुरन्तही सेना सजाई गई और प्रस्थान कर दिया गया । सेना-समूह के चलने से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य की किरणें उसके भीतर गुम सी हो गई। उनका कहीं पताहो न रहा। सारा का सारा सूर्य छिप गया ।

यथासमय दशरथजी मिथिला पहुँच गये । उनकी सेना ने उसके बागों और उद्यानों के पेड़ों को पीड़ित करके उसे चारों तरफ़ से घेर लिया । परन्तु यह घेरा शत्रुभावसूचक न था, किन्तु प्रीति- सूचक था । अतएव प्रियतम के कठोर प्रेम-व्यवहार को जैसे स्त्री सह लेती है वैसे ही मिथिला ने भी सेना-सहित दशरथ के प्रेम-पूर्ण अवरोध को प्रसन्नतापूर्वक सह लिया।

मिथिला में जिस समय जनक और दशरथजी परस्पर मिले उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे इन्द्र और वरुण मिल रहे हों। आचार-व्यवहार और रीति-रवाज में वे दोनों बड़े दक्ष थे। अतएव उन्होंने अपने पुत्रों और पुत्रियों के विवाह की क्रिया, अपने वैभव के अनुसार, बड़े ठाठ से, विधिपूर्वक, निबटाई । रघुकुलकेतु रामचन्द्र ने तो पृथ्वी की पुत्री सीता से विवाह किया और लक्ष्मण ने सीता की छोटी बहन ऊर्मिला से । रहे उनके छोटे भाई, तेजस्वी भरत और शत्रुघ्न । सो उन्होंने जनक के भाई कुशध्वज की कन्या माण्डवी और अतिकीर्ति के साथ विवाह किया। ये दोनों कन्यायें भी परम रूपवती थीं । कटि तो इनकी बहुत ही कमनीय थी।

चौथे के सहित उन तीनों राजकुमारों का विवाह हो चुका । उस समय, राजा दशरथ के सिद्धियों सहित साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों उपायों की तरह, नव-विवाहिता वधुओं सहित ये चारों राजकुमार बहुत ही भले मालूम हुए । सिद्धियों की प्राप्ति से साम आदि उपाय जैसी शोभा पाते हैं वैसी ही शोभा वधुओं की प्राप्ति से राम आदि चारों कुमारों ने भी पाई । अथवा वरों और वधुओं का वह समागम प्रकृति और प्रत्यय

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