पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२२७

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रघुवंश ।

के योग की तरह शोभाशाली हुआ। क्योंकि ऐसी रूपगुणसम्पन्न राजकुमारियाँ पाकर राजकुमार कृतार्थ हो गये और ऐसे सवंशजात तथा अपने अनुरूप राजकुमार पाकर राजकुमारियाँ कृतार्थ हो गई। इस सम्बन्ध से महाराज दशरथ को भी बड़ी खुशी हुई। प्रेम-पूर्वक उन्होंने अपने चारों कुमारों के विवाह की लौकिक रीतियाँ सम्पादित की। सारी विधि समाप्त होने पर वे वहाँ से चल दिये । जनकजी भी तीन पड़ाव तक उनके साथ आये । तदनन्तर वे मिथिला को लौट गये और दशरथजी ने अयोध्या का मार्ग लिया।

राह में, एक दिन, अकस्मात्, बड़े जोर से उलटी हवा चलने और दशरथ के ध्वजारूपी पेड़ों को बेतरह झकझोरने लगी। नदी का बढ़ा हुआ जल प्रवाह जिस तरह किनारों को तोड़ कर सूखी ज़मीन को नष्टभ्रष्ट करने लगता है उसी तरह उस वेगवान् वायु ने दशरथ की सेना को पीड़ित करना प्रारम्भ कर दिया । आँधी बन्द होने पर सूर्य के चारों तरफ़ एक बड़ाही भयानक परिधि मण्डल दिखाई दिया। उस घेरे के बीच में सूर्य ऐसा मालूम हुआ जैसे गरुड़ के मारे हुए साँप के फन से गिरी हुई मणि उसके मृत शरीर की कुण्डली के बीच में रक्खी हो। उस समय दिशाओं की बड़ी ही बुरी दशा हुई । भूरे भूरे पंख फैलाये हुए चील्हें चारों तरफ़ उड़ने लगी । वही मानो दिशाओं की बिखरी हुई धूसर रङ्ग की अलके हुई । लाल रङ्ग के सायङ्कालीन मेघ दिगन्त में छा गये। वही मानो दिशाओं के रक्तवर्ण वस्त्र बन गये। सब कहीं रजही रज, अर्थात्धू लही धूल, दिखाई देने लगी। रजोवती हो जाने से दिशायें दर्शन-योग्य न रह गई। उनकी दशा मलिनवसना अस्पृश्य स्त्री के सदृश हो गई। अतएव उनकी तरफ़ आँख उठा कर देखने को जी न चाहने लगा। जिस दिशा में सूर्य था उस दिशा में गीदड़ियाँ इस तरह रोने लगों कि सुन कर डर मालूम होने लगा। क्षत्रियों के रुधिर से परलोकगत पिता का तर्पण करने की परशुराम को आदत सी पड़ गई थी। रो रो कर गीदड़ियाँ उन्हें, क्षत्रियों का पुनरपि संहार करने के लिए, मानो उभाड़ने सा लगी।

उलटी हवा चलना और शृगालियों का रोना आदि अनेक अशकुन होते देख दशरथजी घबरा उठे । शकुन-अशकुन पहचानने में वे बहुत निपुण