थे और ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए, यह भी वे जानते थे । अतएव उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि महाराज ! इन अशकुनों की शान्ति के लिए क्या करना चाहिए। गुरु ने उत्तर दिया:--"घबराने की बात नहीं । इनका परिणाम अच्छा ही होगा।” यह सुन कर दशरथ का चित्त कुछ स्थिर हुआ; उनकी मनोव्यथा कुछ कम हो गई।
इतने में ज्योति का एक पुञ्ज अकस्मात् उठा और दशरथ की सेना के सामने तत्कालही प्रकट हो गया। उसका आकार मनुष्य का था। परन्तु सैनिकों की आँखे तिलमिला जाने से पहले वे उसे पहचानही न सके। बड़ी देर तक आँखें मलने के बाद जो उन्होंने देखा तो ज्ञात हुआ कि वह तेजःपुञ्ज पुरुष परशुरामजी हैं । उनके कन्धे पर पड़ा हुआ जनेऊ यह सूचित कर रहा था कि वे ब्राह्मण ( जमदग्नि ) के बेटे हैं। इसके साथ ही, उनके हाथ में धारण किया हुआ धनुष, जिसके कारण वे इतने बली और अजेय हो रहे थे, यह बतला रहा था कि उनका जन्म क्षत्रियकुलोत्पन्न माता ( रेणुका) से है। जनेऊ पिता के अंश का सूचक था और धनुष माता के अंश का। उग्रता और ब्रह्मतेज-कठोरता और कोमलता-का उनमें अद्भुत मेल था । अतएव वे ऐसे मालूम होते थे जैसे चन्द्रमा के साथ सूर्य अथवा साँपों के साथ चन्दन का वृक्ष । उनके पिता बड़े क्रोधी, बड़े कठोरवादी और बड़े कर-कर्मा थे। यहाँ तक कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने शास्त्र और लोक की मर्यादा का भी उल्लंघन कर दिया था। ऐसे भी पिता की आज्ञा का पालन करने में प्रवृत्त होकर, इस तेज:पुञ्ज पुरुष ने कँपती हुई अपनी माता का सिर काट कर पहले तो दया को जीता था, फिर पृथ्वी को। पृथ्वी को क्षत्रिय-रहित कर के उसे जीतने के पहलेही इन्होंने घृणा, करुणा और दया को दूर भगा दिया था। ये बड़ेही निष्करुण और निर्दय थे। इनके दाहने कान से लटकती हुई रुद्राक्ष की माला बहुतही मनोहर मालूम होती थी। वह इनकी शरीर-शोभा को और भी अधिक कर रही थी। वह माला क्या थी, मानो उसके बहाने क्षत्रियों को इक्कीस दफे संहार करने की मूर्त्तिमती गणना इन्होंने कान पर रख छोड़ी थी।
निरपराध पिता के मारे जाने से उत्पन्न हुए क्रोध से प्रेरित होकर