पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२३१

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रघुवंश ।

वे कुछ मुसकराये तो ज़रूर, पर परशुराम के प्रश्न का उत्तर देने की उन्होंने ज़रूरत न समझी। उनके हाथ से उनका शर और शरासन ले लेना ही रामचन्द्र ने उनकी बात का सब से अच्छा उत्तर समझा। अतएव उन्होंने परशुराम से उनका धनुर्बाण ले लिया। उससे रामचन्द्र की पूर्व-जन्म की पहचान थी। नारायणावतार में यही उनका धनुष था। रामचन्द्र के हाथ में उसके फिर आ जाने से उनकी शोभा और भी विशेष हो गई । नया बादल यों ही बहुत भला मालूम होता है। यदि कहीं इन्द्रधनुष से उसका संयोग हो जाय तो फिर उसकी सुन्दरता का क्या कहना है ! रामचन्द्र बालक होकर भी बड़े बली थे। परशुराम के धनुष की एक नोक ज़मीन पर रख कर, बात कहते, उन्होंने उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। यह देखते ही क्षत्रिय राजाओं के चिरशत्रु परशुराम का चेहरा उतर गया। धुवाँमात्र बची हुई आग की तरह वे तेजोहीन हो गये। उस समय रामचन्द्र और परशुराम, आमने सामने खड़े हुए,परस्पर एक दूसरे को देखने लगे। रामचन्द्र का तो तेज बढ़ रहा था, पर परशुराम का घटता जाता था। अतएव जो लोग वहाँ उपस्थित थे उन्हें, उस समय, पूर्णमासी के सायङ्कालीन चन्द्रमा और सूर्य के समान वे मालूम हुए। स्वामिकार्तिक के सदृश पराक्रमी रामचन्द्र ने देखा कि परशुराम की सारी गर्जना तर्जना व्यर्थ गई । उनका कुछ भी ज़ोर उन पर न चल सका । अतएव उनको परशुराम पर दया आई। उन्होंने पहले तो आँख उठा कर परशुराम की तरफ़ देखा, फिर धनुष पर चढ़े हुए और कभी व्यर्थ न जानेवाले अपने बाण की तरफ़ । तदनन्तर उन्होंने परशुराम से कहा:-

“यद्यपि आपने मेरा तिरस्कार किया है-यद्यपि आपने मुझे बहुत भला बुरा कहा है-तथापि आप ब्राह्मण हैं । इस कारण मैं आपके साथ निर्दयता का व्यवहार नहीं करना चाहता । मैं नहीं चाहता कि कठोर आघात करके मैं आपको मार गिराऊँ। परन्तु बाण मेरा धनुष पर चढ़ चुका है। वह व्यर्थ नहीं जा सकता। कहिएतो उसे छोड़ कर मैं आपका चलना-फिरना बन्द कर दूं । अथवा यज्ञ करके जिस स्वर्ग के पाने के आप अधिकारीहहुए हैं उसकी राह रोक हूँ। दो बातों में से जो आप कहें कर दूं।"

परशुराम ने उत्तर दियाः-