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ग्यारहवां सर्ग।

"मैं आपके स्वरूप को पहचानता हूँ और अच्छी तरह पहचानता हूँ। मैं जानता हूँ कि आप आदि पुरुष हैं । तिस पर भी मैंने जो आपको कुपित किया उसका कारण यह था कि मुझे आपका वैष्णव तेज देखना था। मुझे यह जानना था कि आपने सचमुच ही, पृथ्वी पर, राम के रूप में, अवतार लिया है या नहीं। सो, मैं आपकी परीक्षा ले चुका। मुझे अब विश्वास हो गया है कि आप सचमुच ही परमेश्वर के अवतार हैं। मुझे जो कुछ करना था मैं कर चुका । पिता के वैरियों को जला कर मैंने खाक कर दिया और समुद्र-पर्यन्त विस्तृत पृथ्वी सत्पात्रों को दान कर दी। अतएव, अब मुझे कुछ भी करना शेष नहीं। आप हैं भगवान् विष्णु के अवतार । आप से हार जाना भी मेरे लिए प्रशंसा की बात है । वह मेरी अपकीति का कारण नहीं हो सकती । आप तो विचार- शीलों और बुद्धिमानों में शिरोमणि हैं । अतएव आप स्वयं ही इन बातों को मुझ से अधिक जान सकते हैं। अब आप एक बात कीजिए । मेरी गति को रहने दीजिए, जिससे मैं तीर्थाटन करने योग्य बना रहूँ। पवित्र तीर्थों के दर्शन और स्नान आदि की मुझे बड़ी इच्छा है। उससे मुझे वञ्चित न कीजिए । रही स्वर्गप्राप्ति की बात, सो उसकी मुझे विशेष परवा नहीं। मैं सुखोपभोगों का लोभी नहीं । इससे यदि आप मेरे स्वर्ग-गमन की राह रोक देंगे तो मुझे कुछ भी दुःख न होगा।"

यह सुन कर रघुवंश-विभूषण रामचन्द्र ने कहा:--"बहुत अच्छा। मुझे आपकी आज्ञा मान्य है।" फिर उन्होंने अपना मुँह पूर्व की ओर करके उस चढ़े हुए बाण को छोड़ दिया। वह पुण्यका परशुराम के भी स्वर्ग-मार्ग की अर्गला बन गया-जिस मार्ग से उन्हें स्वर्ग जाना था उसे उसने रोक दिया । तदनन्तर रामचन्द्र ने परम तपस्वी परशुराम से नम्रतापूर्वक क्षमा माँगी और उनके दोनों पैर छुए । बल से जीते गये शत्रु से नम्रता ही का व्यवहार शोभा देता है । ऐसे व्यवहार से तेजस्वियों की कीर्ति और भी बढ़ती है। इसी से रामचन्द्र ने ऐसा किया।

रामचन्द्र की क्षमा-प्रार्थना और नम्रता से प्रसन्न होकर परशुराम ने कहा:-

"क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न हुई माता की कोख से जन्म लेने के कारण मुझ में जो रजोगुण आ गया था उसे आपने दूर कर दिया । आपकी बदौ-