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बारहवाँ सर्ग।


वे बेतरह विकल हो उठे। उन्हें अपने अनुचित कर्म के कारण मिले हुए शाप का स्मरण हो पाया। अतएव उन्होंने शरीर न रखने ही में अपना भला समझा। उन्होंने कहा, बिना मेरी मृत्यु हुए मुनि के शाप का प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। यह सोच कर उन्होंने शरीर छोड़ दिया।

वैरी सदाही छिद्र ढूँढ़ा करते हैं। अतएव जब अयोध्या-राज्य के वैौरेयों ने देखा कि राजकुमार तो वन को चले गये और राजा परलोक को, तब उनकी बन आई। मौका अच्छा हाथ आया देख वे उस राज्य का एक एक अंश, धीरे धीरे, हड़प करने लगे। भरत और शत्रुघ्न भी उस समय अयोध्या में नथे। वे अपने मामा के यहाँ गये थे। फिर भला शत्र क्यों न उत्पात मचाते ? अराजकता फैलती देख कर अनाथ मन्त्रियों ने भरत को बुलाने के लिए दूत भेजे। वे भरत के ननिहाल गये। परन्तु, पिता की मृत्यु की बात वहाँ भरत से कहना उन्होंने उचित न समझा। अतएव, किसी तरह, आँसू रोके हुए, वे वहाँ गये और भरत को लिवा लाये।

अयोध्या को लौट आने पर भरत को पिता की मृत्यु का हाल और उसका कारण मालूम हुआ। इस पर वे दुःख और शोक से व्याकुल हो उठे। उन्होंने अपनी माता कैकेयी ही से नहीं, किन्तु राज्य लक्ष्मी से भी मुँह मोड़ लिया। सेना-समेत उन्होंने अपने भाई का अनुगमन किया। रामचन्द्र को लौटा लाने के इरादे से वे अयोध्या से चल दिये। राह में जिन पेड़ों के नीचे राम-लक्ष्मण ने विश्राम किया था उन्हें जब आश्रमवासी मुनियों ने भरत को दिखाया तब भरत की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। चित्रकूट पहुँचने पर राम-लक्ष्मण से भरत की भेट हुई। भरत ने पहले तो पिता के मरने का वृत्तान्त रामचन्द्र से कह सुनाया। फिर उन्होंने रामचन्द्र से अयोध्या लौट चलने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने कहा:-"मैं ने अभी तक आपकी राज्य लक्ष्मी को हाथ तक नहीं लगाया। वह वैसी ही अछूती बनी हुई है। चलिए और कृपापूर्वक उसका उपभोग कीजिए।" बड़े भाई का विवाह होने के पहले यदि छोटा भाई विवाह करले तो वह परिवेत्ता कहलाता है और धर्मशास्त्र के अनुसार उसे दोष लगता है। इसी से भरत ने सोचा कि बड़े भाई रामचन्द्र के राज्य-लक्ष्मी का स्वीकार न करने पर यदि मैं उसका स्वीकार कर लूँगा तो परिवेत्ता होने के दोष से