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बारहवाँ सर्ग।


इस पर सीताजी ने रामचन्द्र को जगाया। तब उन्होंने सींक का एक ऐसा बाण मारा कि उस कौवे को उससे पीछा छुड़ाना कठिन हो गया। अन्त को अपनी एक आँख देकर किसी तरह उसने उस बाण से अपनी जान बचाई। वाण ने उसकी एक आँख फोड़ कर उसे छोड़ दिया।

इस घटना के उपरान्त रामचन्द्र ने सोचा कि चित्रकूट अयोध्या से बहुत दूर नहीं। यहाँ रहने से भरत का फिर चित्रकूट आना बहुत सम्भव है। इससे कहीं दूर जाकर रहना चाहिए। रामचन्द्र को चित्रकूट में रहते यद्यपि बहुत दिन न हुए थे तथापि पशु-पक्षी तक उनसे प्रीति करने लगे थे। हिरन तो उनसे बहुत ही हिल गये थे। तथापि, पूर्वोक्त कारण से, उन्हें यह प्रीति-बन्धन तोड़ना पड़ा। चित्रकूट-पर्वत की भूमि उन्होंने छोड़ दी। अतिथियों का आदर-सत्कार करनेवाले ऋषियों के आश्रमों में वर्षा-ऋतु से सम्बन्ध रखनेवाले आर्द्रा, पुनर्वसु आदि नक्षत्रों में सूर्य के समान-कुछ कुछ दिन तक वास करते हुए वे दक्षिण दिशा को गये। उनके पीछे पीछे जाने वाली विदेहतनया सीता उस समय लक्ष्मी के समान शोभायमान हुई। कैकेयी ने यद्यपि राज्यलक्ष्मी को रामचन्द्र के पास नहीं आने दिया-यद्यपि उसने उसे रामचन्द्र के पास जाने से रोक दिया-तथापि लक्ष्मी ठहरी गुणग्राहिणी। वह किसी की रोक-टोक की परवा करनेवाली नहीं। परवा वह सिर्फ गुण की करती है। जहाँ वह गुण देखती है वहीं पहुँच जाती है। अतएव, रामचन्द्र में अनेक गुणों का वास देख कर वह सीताजी के बहाने रामचन्द्र के साथ चली आई और साथ ही साथ रही।

महर्षि अत्रि के आश्रम में उनकी पत्नी अनसूया ने सीताजी को एक ऐसा उबटन दिया जिसकी परम पवित्र सुगन्धि से सारा वन महक उठा। यहाँ तक कि भौरों ने फूलों का सुवास लेना छोड़ दिया। वे सीताजी के शरीर पर लगे हुए उबटन की अलौकिक सुगन्धि से खिंच कर उन्हीं की तरफ़ दौड़ दौड़ आने लगे।

राह में रामचन्द्र को विराघ नामक राक्षस मिला। वह सायङ्कालीन मेघों की तरह लालिमा लिये हुए भूरे रङ्ग का था। चन्द्रमा के मार्ग को राहु की तरह, वह रामचन्द्र के मार्ग को रोक कर खड़ा हो गया। इतना ही नहीं, किन्तु उस लोकसन्तापकारी राक्षस ने राम और लक्ष्मण के बीच