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रघुवंश।


ने देखा कि रामचन्द्र तो पैदल खड़े हैं, पर रावण रथ पर सवार है। यह बात उन्हें बहुत खटकी। अतएव, इन्द्र ने कपिल वर्ण के घोड़े जुतो हुआ अपना रथ उनकी सवारी के लिए भेज दिया। मार्ग में आकाश-गङ्गा की लहरों का स्पर्श करके आई हुई वायु ने इस रथ की ध्वजा के वस्त्र को खूब हिलाया। एक क्षण में वह विजयी रथ रामचन्द्र के सामने आकर खड़ा हो गया। इन्द्र के सारथी मातलि के हाथ के सहारे रामचन्द्र उसपर सवार हो गये। रथ के साथ इन्द्र का कवच भी मातलि लाया था। उसे उसने रामचन्द्र को पहना दिया। यह वही कवच था जिस पर असुरों के अस्त्र कमल-दल की असमर्थता को पहुँचे थे। कमल का दल बहुत ही कोमल होता है। उसे फेंक कर मारने से बिलकुल ही चोट नहीं लगती। असुर लोग जब इन्द्र पर अस्त्र चलाते थे तब इस कवच की कृपा से इन्द्र पर उनका कुछ भी असर न होता था। वे कमल-दल के सदृश कवच पर लग कर गिर पड़ते थे। इसी कवच को शरीर पर धारण करके रामचन्द्रजी रावण से युद्ध करने के लिए तैयार हो गये।

रामचन्द्र और रावण, दोनों, एक दूसरे के आमने सामने हुए। राम ने रावण को देखा और रावण ने राम को। अपना अपना बल-विक्रम दिखाने का अवसर बहुत दिन के बाद आने से राम-रावण का युद्ध सफल सा हो गया। प्रत्यक्ष युद्ध न करने से अभी तक उन दोनों का वैर-भाव निष्फल सा था। अब दो में से एक की हार के द्वारा उसका परिणाम मालूम होने का मौक़ा आ गया। रावण के पुत्र, बन्धु-बान्धव और सेनानी आदि मर चुके थे। अतएव, यद्यपि वह अकेला ही रह गया था-पहले की तरह उसके पास यद्यपि उसके शरीर-रक्षक तक न थे-तथापि अपने हाथों और सिरों की बहुलता के कारण वह अपनी राक्षसी माता के वंश के अनेक राक्षसों से घिरा हुआ सा मालूम हुआ।

कुवेर के छोटे भाई रावण को देख कर रामचन्द्रजी ने मन में कहाः- "यह लोकपालों का जीतने वाला है। अपने सिर काट काट कर उन्हें इसने फूल की तरह महादेवजी पर चढ़ाया है। कैलास-पर्वत तक को एक बार इसने उठा लिया था। यह सचमुच ही बड़ा वीर है।” इस प्रकार मन में सोच कर वे बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा, ऐसे बली वैरी