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रघुवंश।

आँख ने फड़क कर बता ही दिया । सीताजी की आँखों के लिए रामचन्द्र का दर्शन बहुत ही प्यारा था। उन्हें देख कर उनकी आँखों को परमानन्द होता था। उस आनन्द से वे,और उनके द्वारा स्वयं सीताजी,चिरकाल के लिए वञ्चित होनेवाली थीं। इसी से उनकी दाहनी आँख से न रहा गया । फड़क कर उसने उस भावी दुःख की सूचना कर ही दी। इस बुरे शकुन ने सीताजी को विकल कर दिया । उनका मुखारविन्द कुम्हला गया। उस पर बेतरह उदासीनता छा गई । मुँह से तो उन्होंने कुछ न कहा। पर अन्तःकरण से वे परमेश्वर की प्रार्थना करने लगी। उन्होंने मन ही मन कहा:"भाइयों सहित राजा का भगवान कल्याण करे !"

मार्ग में आगे बहती हुई गङ्गाजी मिलीं । बड़े भाई की आज्ञा से, वन में छोड़ आने के लिए,उनकी पतिव्रता और सुशीला पत्नी को,ले जाते देख,गङ्गा ने अपने तरङ्गरूपी हाथ उठा कर लक्ष्मण से मानों यह कहा कि खबरदार,ऐसा काम न करना ! इन्हें छोड़ना मत ! गङ्गा के किनारे सुमन्त ने रथ खड़ा कर दिया और लक्ष्मण ने रथ से उतर कर अपनी भावज को भी उतार लिया । तब तक उस घाट का मल्लाह एक सुन्दर नाव ले आया। सत्यप्रतिज्ञ लक्ष्मण उसी पर सीताजी को चढ़ा कर गङ्गा के पार उतर गये । पार क्या उतर गये,मानों बड़े भाई की आज्ञा से, सीताजी को वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ आने के लिए उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसके वे पार हो गये। उन्होंने उसकी पूर्ति सी कर दी।

गङ्गा के उस पार पहुँचने पर जब रामचन्द्र की आज्ञा सुनाने का कठिन प्रसङ्ग उपस्थित हुआ तब लक्ष्मण की आँखें डब डबा आई । उनका कण्ठ सँध गया। कुछ देर तक उनके मुँह से शब्द ही न निकला। खैर,हृदय को कड़ा करके,किसी तरह,उन्होंने,उत्पात मचानेवाले मेघ से पत्थरों की वृष्टि के समान,अपने मुँह से राजा की वह दारुण आज्ञा उगल दी। उसे सुनते ही तिरस्कार- रूपी तीव्र लू की मारी सीताजी,लता की तरह,अपनी जन्मदात्री धरणी पर धड़ाम से गिर गई और उनके प्राभरणरूपी फूल उनके शरीर से टपक पड़े । विपत्ति में स्त्रियों को माता ही याद आती है। चाहे वह उनका दुःख दूर कर सके चाहे न कर सके, सहारा उसका ही स्त्रियों को लेना पड़ता है। हाय ! माता धरणी ने