पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३४
रघुवंश।

से उन्नत हुए अपने सिर को शत्रुघ्न ने, उस समय, मुनियों के सामने झुका कर नम्रता दिखाई । पराक्रम के काम कर के भी, अपनी प्रशंसा सुनने पर, लज्जित होना और सङ्कोच से सिर नीचा कर लेना ही सच्ची वीरता का सूचक है। ऐसे ही व्यवहार से वीरों की शोभा होती है।

पुरुषार्थ ही को सच्चा भूषण समझने वाले और इन्द्रियों के विषय- भोग की ज़रा भी इच्छा न रखने वाले मधुरमूर्ति शत्रुघ्न को वह जगह बहुत पसन्द आई। इस कारण, उन्होंने, यमुना के तट पर, मथुरा नाम की एक पुरी बसाई और आप उसके राजा हो गये। ऐसा अच्छा राजा पाकर पुरवासियों की सम्पदा दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। सभी कहीं सुख, सन्तोष और समृद्धि ने अपना डेरा जमा दिया । अतएव, ऐसा मालूम होने लगा जैसे स्वर्ग में बसने से बचे हुए मनुष्य लाकर मथुरा बसाई गई हो।

अपनी बसाई हुई पुरी की शोभा ने शत्रुघ्न का मन मोह लिया। अपने महल की छत से वे, सोने के सदृश रङ्गवाले चक्रवाक-पक्षियों से युक्त नीलवर्ण यमुना को-पृथ्वी की सुवर्ण-जटित वेणी के समान -देख कर बहुत ही प्रसन्न हुए।

मन्त्रों के आविष्कारकर्ता महामुनि वाल्मीकिजी दशरथ के भी मित्र थे और जनक जी के भी। मिथिलेश-नन्दिनी सीताजी के पुत्रों के दादा और नाना पर वाल्मीकिजी की विशेष प्रोति होने के कारण, उन्होंने उन दोनों सद्योजात शिशुओं के जात-कर्म आदि संस्कार, विधिपूर्वक, बहुत ही अच्छी तरह, किये। उत्पन्न होने के अनन्तर उनके शरीर पर जो गर्भसम्बन्धी मल लगा हुआ था उसे आदि-कवि ने, अपने ही हाथ से, कुश और लव (गाय की पूँछ के बाल) से साफ किया। इस कारण उन्होंने उन दोनों शिशुओं का नाम भी कुश और लव ही रक्खा। वाल्य-काल बीत जाने पर जब वे किशोरावस्था को प्राप्त हुए तब मुनिवर ने पहले तो उन्हें वेद और वेदाङ्ग पढ़ाया। फिर, भावी कवियों के लिए कवित्व-प्राप्ति की सीढ़ी का काम देने वाली अपनी कविता, अर्थात् रामायण, पढ़ाई । यही नहीं, किन्तु रामायण को गाकर पढ़ना भी उन्होंने लव-कुश को सिखा दिया। रामचन्द्र के मधुर वृत्तान्त से परिपूर्ण रामायण को, अपनी माता