के सामने गा कर, उन दोनों बालकों ने जानकीजी की रामचन्द्र-सम्बन्धिनी वियोग-व्यथा को कुछ कुछ कम कर दिया।
गार्हपत्य, दक्षिण और आहवनीय नामक तीनों अग्नियों के समान तेजस्वी अन्य भी-लक्ष्मण,भरत और शत्रुन्न नामक-तीनों रघुवंशियों की गर्भवती पत्नियों के, अपने अपने पति के संयोग से, दो दो पुत्र हुए ।
इधर शत्रुन्न को मथुरा में रहते बहुत दिन हो गये। अतएव,अयोध्या को लौट कर अपने बड़े भाई के दर्शन करने के लिए उनका मन उत्कण्ठित हो उठा । उन्होंने मथुरा और विदिशा का राज्य तो अपने विद्वान पुत्र शत्रुघाती और सुबाहु को सौंप दिया और आप अयोध्या को लौट चले । उन्होंने कहा:-"अब की दफे वाल्मीकि के आश्रम की राह से न जाना चाहिए । वहां जाने और ठहरने से मुनिवर की तपस्या में विघ्न आता है।" इस कारण, सीताजी के सुतों का गाना सुनने में निमग्न हुए हरिणांवाले वाल्मीकिजी के आश्रम को छोड़ कर वे उसके पास से निकल गये।
प्रजा ने जब सुना कि लवणासुर को मार कर शत्रुघ्न आ रहे हैं तब उसे बड़ी खुशी हुई। सब लोगों ने अयोध्या के प्रत्येक गली कूचे को तोरण और बन्दनवार आदि से खूब ही सजाया। इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले कुमार शत्रन ने जिस समय अयो- ध्यापुरी में प्रवेश किया उस समय पुरवासियों के आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने शत्रुघ्न को बड़ी ही आदरपूर्ण दृष्टि से देखा। यथा- समय शत्रुघ्न रामचन्द्रजी की सभा में गये। उस समय रामचन्द्रजी अपने सभासदों से घिरे हुए बैठे थे। सीता का परित्याग करने के कारण, वे, उस समय, एक मात्र पृथ्वी के ही पति थे ।लवणासुर के शत्रु शत्रुघ्न ने बड़े भाई को देख कर भक्तिभावपूर्वक प्रणाम किया। कालनेमि के वध से प्रसन्न हुए इन्द्र ने जिस तरह विष्णु भगवान्की प्रशंसा की थी उसी तरह रामचन्द्रजी ने भी शत्रुघ्न की प्रशंसा की । शत्रुन्न पर वे बहुत प्रसन्न हुए और उनसे प्रेमपूर्वक कुशल-समाचार पूछे। शत्रुघ्न ने उनसे और तो सब बातें कह दों; पर लव-कुश के जन्म का वृत्तान्त न बताया । बात यह थी कि वाल्मीकि ने उन्हें आज्ञा दे दी थी कि तुम इस विषय में रामचन्द्रजी से कुछ न कहना; किसी समय मैं स्वयं ही यह वृत्तान्त उन्हें सुनाऊँगा । इसीसे, इस विषय में; शत्रुघ्न को चुप रहना पड़ा।