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पन्द्रहवाँ सर्ग।

विश्वास हो गया। अतएव, अपने राज्य के वर्णाश्रम-सम्बन्धी विकार को दूर करने का निश्चय करके उन्होंने विमान को बड़े वेग से उड़ाया। रामचन्द्रजी की आज्ञा से वह इतने वेग से उड़ा कि उसकी पताका, हवा के झोंकों से लहराने और फहराने पर भी, निश्चल सी मालूम होने लगी । दूर दूर तक वे विमान पर बैठे हुए दुराचार का कारण हूँढ़ते फिरे । कोई दिशा ऐसी न बची जहाँ वे न गये हों । अन्त को, ढूँढ़ते ढूँढते, उन्हें एक तपस्वी देख पड़ा ।अपना मुँह पृथ्वी की तरफ़ किये हुए, एक पेड़ की डाल से वह लटक रहा था। उसके नीचे आग जल रही थी, धुएँ से उसकी आँखें लाल हो रही थीं । धुआँ पीनेवाले उस तपस्वी से रामचन्द्रजी ने उसका नाम, धाम और कुल आदि पूछा। उसने उत्तर दिया:-

"मेरा नाम शम्बुक है । जाति का मैं शूद्र हूँ । स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा से मैं तपस्या कर रहा हूँ-मैं देवता हो जाना चाहता हूँ।"

यह सुन कर वों और आश्रमों को अपनी अपनी मर्यादा के भीतर रखनेवाले राजा रामचन्द्र ने कहा कि तू तपस्या का अधिकारी नहीं। तेरे ही कारण मेरी प्रजा को दुःख पहुँच रहा है। तू मार डालने योग्य है। तेरा सिर काटे बिना मैं न रहूँगा । यह कह कर उन्होंने शस्त्र उठाया और आग की चिनगारियों से मुल सो हुई उसकी डाढ़ीवाले सिर को-पाला पड़ने से कुम्हलाये हुए केसरवाले कमल फूल की तरह-कण्ठरूपी नाल से काट दिया । स्वयं राजा के हाथ से मारे जाने पर उस शूद्र ने पुण्यात्माओं की गति पाई-जिस गति को पुण्यशील महात्मा ही पाते हैं वही उसको प्राप्त हो गई। यद्यपि वह घोर तपस्या कर रहा था तथापि उसकी तपस्या से वर्णाश्रम-धर्म के नियमों का उल्लङ्घन होता था। अतएव, यदि रामचन्द्रजी के हाथ से उसकी मृत्यु न होती तो वह अपनी तपस्या से उस गति का कदापि अधिकारी न होता।

मार्ग में महातेजस्वी अगस्त्य मुनि रामचन्द्रजी को मिले । उनको मुनिवर ने-शरत्काल को चन्द्रमा के समान-अापही कृपा करके अपने दर्शन दिये। अगस्त्य मुनि के पास, देवताओं के धारण करने योग्य, एक आभूषण था । उसे उन्होंने समुद्र से पाया था--उस समुद्र से जिसे उन्होंने पी कर फिर पेट से निकाल दिया था। अपने जीवदान के पलटे में ही

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