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पन्द्रहवाँ सर्ग।

की आज्ञा है उससे भी अधिक सामग्री से यज्ञ किया गया । उसमें किसी तरह का विन्न न हुआ। यज्ञ आदि पुण्य कार्यों में राक्षस ही अधिक विघ्न डालते हैं । परन्तु रामचन्द्रजी के यज्ञ में विभीषण आदि राक्षस ही रक्षक थे । फिर भला क्यों न वह निर्विन समाप्त हो ?

यज्ञ में वाल्मीकि मुनि भी आये थे। अपने साथ वे जानकीजी के दोनों पुत्र, लव और कुश, को भी लाये थे। उन्हें महर्षि ने आज्ञा दी कि मेरी रची हुई रामायण तुम अयोध्या में गाते फिरो। लव-कुश ने गुरु की आज्ञा का पालन किया । उन्होंने अयोध्या में घूम घूम कर, यहाँ वहाँ,खूब ही उसे गाया । एक तो रामचन्द्रजी का पावन चरित, दूसरे महामुनि वाल्मीकिजी को रचना, तीसरे किन्नर-कण्ठ लव-कुश के मुख से गाया जाना ! भला फिर उसे सुन कर सुननेवाले क्यों न मोहित हो ? जिस जिसने उन दोनों बालकों का गाना सुना उस उसका मन उन्होंने मोह लिया। गाना उनका जैसा मधुर था, मूर्ति भी उनकी वैसी ही मधुर थी। अतएव, जो लोग रूपमाधुर्य और गानविद्या के ज्ञाता थे उन्हें लव कुश के दर्शन और उनका गाना सुनने से अवर्णनीय आनन्द हुआ। उन्होंने सारा हाल रामचन्द्रजी से कह सुनाया। उन्हें भी बड़ा कुतूहल हुआ। अतएव, उन्होंने लव-कुश को बुला कर उन्हें देखा भी और भाइयों सहित उनका गाना भी सुना। जिस समय लव-कुश ने रामचन्द्रजी की सभा में रामायण गाना आरम्भ किया उस समय सभासदों की आँखों से आनन्द के आँसुओं की वर्षा होने लगी। सारी सभा ने इतनी एकाग्रता से गाना सुना कि वह चित्र लिखी सी निश्चल बैठी रह गई। उस समय वह उस वन-भूमि के सदृश मालूम होने लगी जिसके वृक्षों से, प्रातःकाल, ओस टपक रही हो, और, हवा न चलने से, जिसके वृक्ष बिना हिले डुले निस्तब्ध खड़े हों।

लव-कुश को देख कर, एक और कारण से भी, सब लोग अचम्भे में आ गये। लव-कुश और रामचन्द्र में उन्हें बहुत ही अधिक सदृशता मालूम हुई । बालवयस और मुनियों की सी वेशभूषा को छोड़ कर, अन्य सभी बातों में, वे दोनों भाई राम- चन्द्र के तुल्य देख पड़े। परन्तु लोगों के अचम्भे का, इससे भी बढ़ कर, एक और भी कारण हुआ। वह यह था