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रघुवंश ।

पृथ्वी से सीताजी को छीन लाना चाहा। परन्तु गुरु ने, दैव शक्ति की प्रबलता का वर्णन करके, और, बहुत कुछ समझा बुझा कर, उनके कोप को शान्त कर दिया।

यज्ञ समाप्त होने पर, आये हुए ऋषियों और मित्रों का खूब आदर-सत्कार करके रामचन्द्र ने उन्हें अच्छी तरह बिदा किया; पर लव कुश को उन्होंने अपने ही यहाँ रख लिया । जिस स्नेह की दृष्टि से वे अब तक सीताजी को देखते थे उसी दृष्टि से वे अब उनके पुत्र लव-कुश को देखने लगे।

भरतजी के मामा का नाम युधाजित् था। उन्होंने प्रजापालक राम- चन्द्रजी से यह सिफारिश की कि सिन्धु-देश का ऐश्वर्यशाली राज्य भरत को दे दिया जाय । रामचन्द्रजी ने इस बात को मान कर भरत को सिन्धुदेश का राजा बना दिया। भरत ने उस देश में जाकर वहाँ के निवासी गन्धव्रो को युद्ध में ऐसी करारी हार दी कि उन बेचारों को हाथ से हथियार रख कर एक मात्र वीणा ही ग्रहण करनी पड़ी। राज-पाट का झंझट छोड़ कर वे अपना गाने बजाने का पेशा करने को लाचार हुए। सिन्धु-देश में अपना दब- दबा जमा कर भरतजी ने वहाँ की तक्षशिला नामक एक राजधानी में तो अपने पुत्र तक्ष का राज्याभिषेक कर दिया और पुष्कलावती नामक दूसरी राजधानी में दूसरे पुत्र पुष्कल का । भरतजी के ये दोनों पुत्र बहुगुण-सम्पन्न, अतएव, राजा होने के सर्वथा योग्य थे। उनका अभिषेक करके भरतजी अयोध्या को लौट आये ।

अब रह गये लक्ष्मणजी के पुत्र अङ्गद और चन्द्रकेतु । उन्हें भी उनके पिता ने, रामचन्द्रजी की आज्ञा से, कारापथ नामक देश का राजा बना दिया। वे भी अङ्गदपुरी और चन्द्रकान्ता नामक राजधानियों में राज्य करने लगे।

इस तरह लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पुत्रों को राजा बना कर और प्रत्येक को अलग अलग राज्य देकर, रामचन्द्रजी और उनके भाई निश्चिन्त हो गये।

बूढ़ी होने पर, रामचन्द्र आदि की मातायें-कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी-शरीर छोड़ कर पति-लोक को पधारी। माताओं के मरने पर, नरेश-शिरोमणि रामचन्द्रजी और उनके भाइयों ने प्रत्येक की श्राद्ध आदि और्ध्वदेहिक क्रियायें, क्रम से, विधिपूर्वक, कौं !