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रघुवंश।

लेकर और अग्निहोत्र की आग के पात्र को आगे करके, उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। यह बात अयोध्या से न देखी गई । उसने कहा:-"जब मेरे स्वामी रामचन्द्रजी ही यहाँ से चले जा रहे हैं तब मेरा ही यहाँ अब क्या काम ? मैं भी उन्हीं के साथ क्यों न चल दूं।" अतएव, स्वामी पर अत्यन्त प्रीति के कारण, निर्जीव घरों को छोड़ कर, वह भी रामचन्द्रजी के पीछे चल दी-सारे अयोध्यावासी रामचन्द्रजी के साथ चल दिये और अयोध्या उजाड़ हो गई । रामचन्द्रजी के मार्ग को, कदम्ब की कलियों के समान अपने बड़े बड़े आँसुओं से भिगोती हुई, अयोध्या की प्रजा जब चल दी, तब रामचन्द्रजी के मन की बात जान कर, उनके सेवक राक्षस और कपि भी उसी पथ के पथिक हो गये । वे भी राम- चन्द्रजी के पीछे पीछे रवाना हुए।

इतने में एक विमान स्वर्ग से आकर उपस्थित हो गया। भाइयों सहित रामचन्द्रजी तो उस पर सवार हो गये। रहे वे लोग जो उनके पीछे पीछे आ रहे थे; सो उनके लिए भक्तवत्सल रामचन्द्र- जी ने सरयू को ही स्वर्ग की सीढ़ी बना दी । सरयू का अवगाहन करते ही, रामचन्द्रजी की कृपा से, वे लोग स्वर्ग को पहुँच गये । नदियों में जिस जगह गायें उतरती हैं वह जगह गोप्रतर कहलाती है। जिस समय रामचन्द्रजी के अनन्त अनुयायी तैर कर सरयू को पार करने लगे उस समय इतनी भीड़ और इतनी रगड़ा-रगड़ हुई कि गौवों के उतरनेही का जैसा दृश्य दिखाई देने लगा। इस कारण, तब से, उस पवित्र तीर्थ का नामही गोप्रतर हो गया।

सुग्रीव आदि तो देवताओं के अंश थे। इससे, स्वर्ग पहुँचने पर, जब उन्हें उनका असली रूप मिल गया तब रामचन्द्रजी ने देव-भाव को पाये हुए अपने पुरवासियों के लिए एक जुदेही स्वर्ग की रचना कर दी। उनके लिए एक स्वर्ग अलगही बनाया गया।

देवताओं का रावणवधरूपी कार्य करनेही के लिए भगवान् ने राम- चन्द्रजी का अवतार लिया था। अतएव, जब वह कार्य सम्पन्न हो गया तब विभीषण को दक्षिणी और हनूमान् को उत्तरी पर्वत पर, अपनी कीर्ति के दो स्तम्भों के समान, संस्थापित करके, विष्णु के अवतार रामचन्द्रजी, सारे लोकों की आधार-भूत अपनी स्वाभाविक मूर्ति में, लीन हो गये।