पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३०८

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सोलहवाँ सर्ग।

हूँ। एक दिन वह था जब मैं प्रखर-प्रतापी और विश्वविख्यात राजाओं की राजधानी थी। मेरे यहाँ नित नये उत्सव हुआ करते थे । अपनी विभूति से मैं अलकापुरी को भी कुछ न समझती थी। परन्तु हाय ! वही मैं, प्राज, तुझ सर्वशक्तिसम्पन्न रघुवंशी के होते हुए भी, इस दीन दशा को पहुँच गई हूँ। मेरी बस्ती के परकोटे टूट-फूट गये हैं। उसके मकानों की छतें गिर पड़ी हैं। उसके बड़े बड़े सैकड़ों महल खंडहर हो गये हैं । विना मालिक के इस समय उसकी बड़ी ही दुर्दशा है । आज कल वह डूबते हुए सूर्य और प्रचण्ड पवन के छितराये हुए मेघों वाली सन्ध्या की होड़ कर रही है। कुछ दिन और ऐसी दशा रहने से उसके भग्नावशेषों का भी नामोनिशान न रह जायगा; सन्ध्या -समय के बादलों की तरह वे भी विनष्ट हो जायेंगे।

“जिन राजमार्गों में दीप्तिमान नूपुरों का मनोहारी शब्द करती हुई स्त्रियाँ चलती थीं वहाँ अब शोर मचाती हुई गीदड़ी फिरा करती हैं। चिल्लाते समय उनके मुँह से आग की चिनगारियाँ निकलती हैं। उन्हीं के उजेले में वे मुर्दा जानवरों का पड़ा पड़ाया मांस ढूँढ़ा करती हैं।

"वहाँ की बावलियों का कुछ हाल न पूछिए। जल-विहार करते समय उनका जो जल, नवीन नारियों के हाथों का आघात लगने से, मृदङ्ग के समान गम्भीर ध्वनि करता था वही जल, अब, जङ्गली भैंसों के सींगों से ताड़ित होकर, अत्यन्त कर्णकर्कश शब्द करता है।

"बेचारे पालतू मोरों की भी बुरी दशा है । पहले वे बाँस की छतरियों पर आनन्द से बैठते थे। पर उनके टूट कर गिर जाने से उन्हें अब पेड़ों पर ही बैठना पड़ता है। मृदङ्गों की गम्भीर ध्वनि को मेघ गर्जना समझ कर पहले वे मोद-मत्त होकर नाचा करते थे । पर, अब वहाँ मृदङ्ग कहाँ ? इससे उन्होंने नाचना ही बन्द कर दिया है। दावाग्नि की चिनगारियों से उनकी पूछे तक जल गई हैं। कुछ ही बाल उनमें अब बाकी हैं। हाय हाय ! घरों में बड़े सुख से रहने वाले ये मार, इस समय, जङ्गली मोरों से भी बुरी दशा को प्राप्त हो रहे हैं।

" आप जानते हैं कि अयोध्या की सड़कों पर, जगह जगह, सीढ़ियाँ

  • किवदन्ती है कि शृगालियां लिप समय ज़ोर से चिल्लाती हैं उस समय उनके मुह से भाग निकलती है।