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भूमिका।


इन दोनों महाकवियों की रचनाओं को खूब ध्यान से पढ़ने और उन पर विचार करनेवाले इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि कालिदास की तुलना यदि किसी महाकवि से की जा सकती है तो शेक्सपियर ही से की जा सकती है।

कालिदास और भवभूति।

भवभूति भी नाटक-रचना में सिद्धहस्त थे। करुण-रस का जैसा परिपाक उनकी कविता में देखा जाता है वैसा किसी अन्य कवि की कविता में नहीं देखा जाता। मानवी हृदय के अन्तर्गत भादों को जान लेने और उनके शब्द चित्र बनाकर तद्वारा उन्हें सामाजिकों को हृदयङ्गम करा देने की विद्या भवभूति को खूब ही साध्य थी। करुण रस का--यत्र तत्र शृङ्गार और वीर का भी-भवभूति ने जहाँ जहाँ उत्थान किया है वहाँ वहाँ घटनाक्रम के अनुसार उस रस का धीरे धीरे तूफान सा आ गया है। कालिदास ने जिस बात को बड़ी खूबी के साथ थोड़े में कह दिया है उसी को भवभूति ने बेहद बढ़ाया है। मनोभावों को बढ़ा कर वर्णन करना कहीं अच्छा लगता है, कहीं नहीं अच्छा लगता। देश, काल, पात्र और अवस्था का खयाल रख कर प्रसङ्गोपात्त विषय का आकुञ्चन किंवा प्रसारण किया जाना चाहिए। युद्ध के लिए किसी को उत्तेजित करने के लिए वीररसपरिपोषक लम्बी वक्तृता असामयिक और अशोभित नहीं होती। परन्तु जो मनुष्य इष्ट-वियोग अथवा अन्य किसी कारण से व्यथित है उसके मुख से निकली हुई धाराप्रवाही वक्तृता अप्राकृतिक मालूम होती है। थोड़े में अपनी व्यथा-कथा कह कर चुप हो जाना ही व्यथा की गम्भीरता का दर्शक है। शकुन्तला के वियोग में दुष्यन्त ने, और मालती के वियोग में माधव ने, जो कुछ कहा है वह इस बात का प्रमाण है कि जिस बात को भवभूति बड़े बड़े श्लोकों, लम्बे लम्बे समासों और चुने हुए शब्दों में कह कर भी पाठकों का उतना मनोरञ्जन न कर सकते थे उसी को कालिदास थोड़े में इस खूबी में कह सकते थे कि वह दर्शकों या पाठकों के चित्त में चुभी सी जाती थी। शब्दचित्रण में भवभूति बढ़े चढ़े थे, भावोद्बोधन में कालिदास। एक उदाहरण लीजिए। भवभूति का एक शब्दचित्र है:-