पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३११

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रघुवंश।

में उपवन होते हैं; उसकी सेनारूपिणी राजधानी में भी फहराती हुई हज़ारों ध्वजायें उपवन की बराबरी कर रही थीं । राजधानी में घरही घर दिखाई देते हैं। उसकी सेना में भी रथरूपी ऊँचे ऊँचे घरों का जमघट था। राजधानी में विहार करने के लिए शैलों के समान ऊँचे ऊँचे स्थान रहते हैं; उसकी सेना में भी भीमकाय गजराजरूपी शैल-शिखरों की कमी न थी। अतएव, कुश की सेना को जाते देख ऐसा मालूम होता था कि वह सेना नहीं, किन्तु उसकी राजधानी ही चली जा रही है।

छत्ररूपी निर्मल मण्डल धारण किये हुए राजा कुश की आज्ञा से उसका कटक उसकी पहली निवास-भूमि, अर्थात् अयोध्या, की ओर क्रम क्रम से अग्रसर होने लगा। उस समय उसका वह चलायमान कटकउदित हुए, अतएव अमल मण्डलधारी, चन्द्रमा की प्रेरणा से तट की ओर चलायमान महा-सागर के सदृश-मालूम होने लगा। कुश की विशाल सेना की विशाल सेना की चाल ने पृथ्वी को पीड़ित सा कर दिया। ज्यों ज्यों राजा कुश अपनी संख्यातीत सेना को साथ लिये हुए आगे बढ़ने लगा त्यों त्यों पृथ्वी की पीड़ा भी बढ़ने सी लगी। वह उस पीड़ा को सहने में असमर्थ सी हो कर, धूल के बहाने, आकाश को चढ़ सी गई। उसने सोचा, आसमान में चली जाने से शायद मेरा क्लेश कुछ कम हो जाय । कुश का कटक इतना बड़ा था कि उसके छोटे से भी छोटे अंश को देख कर यही मालूम होता था कि वह पूरा कटक है। अतएव, रात भर किसी जगह रहने के बाद, प्रातःकाल, आगे बढ़ने के लिए तैयारी करते समय उसकी टोलियों को चाहे कोई देखे; चाहे आगे के पड़ाव पर, संध्या समय, उतरते हुए उन्हें कोई देखे; चाहे मार्ग में चलते समय उन्हें कोई देखे-देखने वाले कोवेटोलियाँ पूरेही कटक सी मालूम होती थीं। सेनानायक कुश की सेना में हाथियों और घोड़ों की गिनती ही न थी। हाथी मद से मतवाले हो रहे थे। उनकी कनपटियों से मद की धारा बहती थी । उसके संयोग से मार्ग की धूल को कीचड़ का रूप प्राप्त हो जाता था। परन्तु हाथियों के पीछे जब सवारों की सेना आती थी तब घोड़ों की टापों के आघात से उस कीचड़ की फिर भी धूल हो जाती थी।

धीरे धीरे कुश का वह कटक विन्ध्याचल के नीचे, उसकी तराई में,