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सोलहवाँ सर्ग।


निकाला। उस अस्त्र के धनुष पर रक्खे जाते ही कुण्ड के भीतर खलबली मच गई। मारे डर के वह तुब्ध हो उठा और तरङ्गरूपी हाथ जोड़ कर, तट को गिराता हुआ-गड्ढे में गिरे हुए जङ्गली हाथी की तरह-बड़े ज़ोर से शब्द करने लगा। उसके भीतर मगर आदि जितने जलचर थे सब बेतरह भयभीत हो गये। तव कुमुद ने अपनी खैर न समझी। कुश के वाण-सन्धान करते ही उसके होश ठिकाने आगये। अतएव, वह उस कुण्ड से-मथे जाते हुए समुद्र से लक्ष्मी को लिये पारिजात वृक्ष की तरह- अपनी बहन को आगे किये हुए सहसा बाहर निकल आया। कुश ने देखा कि खाये हुए आभूषण को नज़र करने के लिए हाथ में लिये हुए वह नाग सामने खड़ा है। तब उसने गरुड़ास्त्र को धनुष से उतार लिया। बात यह है कि सज्जनों का कोप, नम्रता दिखाने पर, शीघ्रही शान्त हो जाता है।

कुमुद भी अस्त्र-विद्या में निपुण था। वह जानता था कि गरुड़ास्त्र कैसा भीषण अस्त्र है। अपने प्रबल प्रभाव से शत्रुओं का अंकुश बन कर, उन्हें अपने अधीन रखनेवाले कुश के प्रचण्ड पराक्रम से भी वह अनभिज्ञ न था। यह बात भी उससे छिपी न थी कि कुश त्रिलोकीनाथ रामचन्द्र का पुत्र है। अतएव, मान और प्रतिष्ठा से उन्नत हुए भी अपने सिर को उसने मुर्दाभिषिक्त महाराज कुश के सामने अवनत करने ही में अपनी कुशल समझी। कुण्ड से निकलते ही उसने सिर झुका कर कुश को प्रणाम किया और कहा:-

"महाराज, मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि कारणवश मनुष्य का अवतार लेने वाले भगवान् विष्णु के आप पुत्र हैं। पुत्र क्या आप उनकी दूसरी मूर्ति हैं; क्योंकि पुत्र तो आत्मा का प्रतिबिम्ब ही होता है। अतएव, आप सर्वथा मेरे द्वारा आराधना किये जाने योग्य हैं। फिर भला यह कैसे सम्भव था कि मैं कोई बात आपके प्रतिकूल करके आपका अप्रीति-भाजन बनता। आपको मैं कदापि अप्रसन्न नहीं कर सकता। बात यह हुई कि यह लड़की गेंद खेल रही थी। हाथ के आघात से एक बार इसकी गेंद ऊपर को ऊँची चली गई। उसे यह सिर उठाये देख रही थी कि इतने में आपका विजयशील भूषण, प्राकाश से गिरती हुई उल्का की तरह, बड़े वेग के साथ कुण्ड से नीचे गिरता हुआ दिखाई दिया। इस