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रघुवंश।


कारण कुतूहल में आकर इसने उसे उठा लिया। सो इसे आप अब अपनी बलवती भुजा पर फिर धारण कर लें-उस भुजा पर जो आपके घुटनों तक पहुँचती है, जो धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ का चिरस्थायी चिह्न धारण किये हुए है, और जो पृथ्वी की रक्षा के लिए अर्गला का काम देती है। मेरी छोटी बहन, इस कुमुद्रती, ने सचमुच ही आपका भारी अपराध किया है। अतएव, आपके चरणों की चिरकाल सेवा करके यह उस अपराध की मार्जना करने की इच्छुक है। मेरी प्रार्थना है कि आप इसे अपनी अनुचरी बनाने में आनाकानी न करें।"

इस प्रकार प्रार्थना करके कुमुद ने वह आभूषण कुश के हवाले कर दिया। उसे पाकर और कुमुद की शालीनता देख कर कुश ने कहा:-

"मैं आपको अपना सम्बन्धी ही समझता हूँ। आप सर्वथा प्रशंसा- योग्य हैं।"

तब बन्धु-बान्धवों सहित कुमुद ने, अपने कुल का वह कन्यारूपी भूषण, विधिपूर्वक, कुश को भेंट कर दिया। कुश ने धमाचरण के निमित्त, यथाशास्त्र, कुमुद्रती से विवाह किया। जिस समय ऊन का मङ्गलसूचक कङ्कण धारण किये हुए कुमुद्रती के कर को कुश ने, प्रज्वलित पावक को साक्षी करके, ग्रहण किया उस समय पहले तो देवताओं की बजाई हुई तुरहियों की ध्वनि दिशाओं के छोर तक छा गई, फिर आश्चर्यकारक मेघों के बरसाये हुए महा-सुगन्धित फूलों से पृथ्वी पूर्ण हो गई।

इस प्रकार त्रिभुवनगुरु रामचन्द्रजी के औरस पुत्र, मैथिलीनन्दन, कुश, और तक्षक के पाँचवें बेटे कुमुद का, पारस्परिक सम्बन्ध हो गया। इस सम्बन्ध के कारण अपने बाप तक्षक के मारने वाले सर्प-शत्रु गरुड़ के डर से कुमुद को छुटकारा मिल गया। उधर पुरवासियों के प्यारे कुश के राज्य में भी सपों का उपद्रव शान्त हो गया। कुमुद की आज्ञा से सर्पो ने कुश की प्रजा को काटना बन्द कर दिया। और, विष्णु के अवतार रामचन्द्रजी के पुत्र, कुश, की आज्ञा से गरुड़ ने सर्पो को सताना छोड़ दिया। अतएव कुश सर्पभयरहित पृथ्वी का सुख से शासन करने लगा।