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संत्रहवाँ सर्ग।

अभिषेक की क्रिया समाप्त होने पर राजा अतिथि ने स्नातक ब्राह्मणों को अपार धन दिया। उस धन से उन लोगों ने जाकर एक एक यज्ञ भी कर डाला और यज्ञ की दक्षिणा के लिए भी उन्हें और किसी से कुछ न माँगना पड़ा। यज्ञ का सारा खर्च अतिथि के दिये हुए धन से ही निकल गया। राजा अतिथि के अपार दान से सन्तुष्ट होकर ब्राह्मणों ने उसे जो आशीर्वाद दिया उसे बेकार पड़ा रहना पड़ा। बात यह थी कि उस आशीर्वाद से जो फल प्राप्त होने वाले थे वे फल तो अतिथि को, अपने ही' पूर्वजन्म के अर्जित कम्मों की बदौलत, प्राप्त थे। इस कारण ब्राह्मणों के आशीर्वाद के फल, उसके लिए, उस समय, व्यर्थ से हो गये। आगे, किसी जन्म में, उनके विपाक का शायद मौका आवे।

राज्याधिकार पाकर राजा अतिथि ने आज्ञा दी कि जितने कैदी कैद. खानों में हैं सब छोड़ दिये जायें; जिन अपराधियों को वध दण्ड मिला है वे वध न किये जायें; जिनको बोझ ढोने का काम दिया गया है उनसे बोझ न ढुलाया जाय; जो गायें दूध देती हैं वे दुही न जाय-उनका दूध उनके बछड़ों ही के लिए छोड़ दिया जाय। मनोरञ्जन के लिए तोते आदि पक्षी भी, जो उसके महलों में पीजड़ों के भीतर बन्द थे, उसने छोड़ दिये। छूट कर वे आनन्द से यथेच्छ विहार करने लगे।

इसके बाद स्नान करके और सुगन्धित धूप से बाल सुखा कर, वह राज-भवन के भीतर रक्खे हुए हाथीदाँत के चमचमाते हुए बहुमूल्य सिहासन पर, जिस पर सुन्दर बिछौना बिछा हुआ था, वस्त्राभूषण पहनने और शृङ्गार करने के लिए, जा बैठा। तब कपड़े लत्ते पहनाने और शृङ्गार करने वाले सेवक, पानी से अच्छी तरह अपने हाथ धोकर, तुरन्त ही उसके पास जाकर उपस्थित हुए और अनेक प्रकार के शृङ्गारों और वस्त्राभूषणों से उसे खूब ही अलंकृत किया। पहले तो उन्होंने मोतियों की माला से उसके केश-कलाप बाँधे। फिर उनमें जगह जगह फूल गूंथे। इसके पीछे उसके सिर पर प्रभा-मण्डल विस्तार करने वाली पद्मरागमणि धारण कराई। तद- नन्तर कस्तूरी मिले हुए सुगन्धित चन्दन कालेप शरीर पर कर के गोरोचन से बेल-बूटे बनाये। जिस समय सारे आभूषण पहन कर और कण्ठ में माला डाल कर उसने हंसों के चिह्न वाले (हंस कढ़े हुए) रेशमी वस्त्र धारण किये