पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६४
रघुवंश।


उस समय उसकी सुन्दरता बहुत ही बढ़ गई-उसकी वेश-भूषा राजलक्ष्मीरूपिणी दुलहिन के दूल्हे के अनुरूप हो गई। शृङ्गार हो चुकने पर सोने का आईना उसके सामने रक्खा गया। उसमें उसका प्रतिबिम्ब, सूर्योदय के समय प्रभापूर्ण सुमेरु में कल्पवृक्ष के प्रतिबिम्ब के सदृश, दिखाई दिया।

इस प्रकार सज कर राजा अतिथि अपनी सभा में जाने के लिए उठा। उसकी सभा कुछ ऐसी वैसी न थी। देवताओं की सभा से वह किसी बात में कम न थी। राजा के चलते ही चमर, छत्र आदि राज-चिह्न हाथ में लेकर, उसके सेवक भी जय-जयकार करते हुए उसके दाहने बाये चले। सभा-स्थान में पहुँच अतिथि अपने बाप-दादे के सिंहासन पर, जिसके ऊपर च दावा तना हुआ था, बैठ गया। यह वह सिंहासन था जिसकी पैर रखने की चौकी पर सैकड़ों राजाओं ने अपने मुकुटों की मणियाँ रगड़ी थीं और जिनकी रगड़ से वह घिस गई थी। उसके वहाँ विराजने से श्रीवत्स चिह्नवाला वह उतना बड़ा मङ्गल स्थान ऐसा शोभित हुआ जैसा कि कौस्तुभमणि धारण करने से श्रीवत्स, अर्थात् भृगु-चरण, से चिह्नित विष्णु भगवान् का वक्षःस्थल शोभित होता है। प्रतिपदा का चन्द्रमा यदि एक बार ही पूर्णिमा का चन्द्रमा हो जाय-अर्थात् रेखामात्र उदित होकर वह सहसा पूर्णता को पहुँच जाय तो जैसे उसकी कान्ति बहुत विशेष हो जायगी वैसे ही वाल्यावस्था के अनन्तर ही महाराज-पद पाने से अतिथि की कान्ति भी बहुत विशेष होगई।

राजा अतिथि बड़ा ही हँसमुख था। जब वह बोलता था मुसकरा कर ही बोलता था। उसकी मुखचा सदा ही प्रसन्न देख पड़ती थी। अतएव, उसके सेवक उससे बहुत खुश रहते थे। वे उसे विश्वास की साक्षात् मूर्ति समझते थे। वह इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली राजा था। जिस हाथी पर सवार होकर वह अपनी राजधानी की सड़कों पर निकलता था वह ऐरावत के समान बलवान था। उसकी पताकाये कल्पद्रुम की बराबरी करने वाली थीं। इन कारणों से उसने अपनी पुरी, अयोध्या, को दूसरा स्वर्ग बना दिया। उसके शासन-समय में एक मात्र उसी के सिर पर शुभ्र छत्र लगता था। और राजाओं को छत्र धारण करने का अधिकार ही न था। परन्तु उसके उस एक ही छत्र ने, उसके पिता कुश के वियोग