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सत्रहवाँ सर्ग।


का सन्ताप, जो सारे संसार में छा गया था, एकदम ही दूर कर दिया। पहले राजा के वियोग-जन्य आतप से बचने के लिए सब को अलग अलग छाता लगाने की ज़रूरत ही न हुई। धुवाँ उठने के बाद आग की लपट निकलती है और उदय होने के बाद सूर्य की किरणें ऊपर आती हैं। जितने तेजस्वी हैं सब का यही हिसाब है-सब के सब, उत्थान होने के पहले, कुछ समय अवश्य लेते हैं। परन्तु, अतिथि ने तेजस्वियों की इस वृत्ति का उल्लङ्घन कर दिया। वह ऐसा तेजस्वी निकला कि गुणों के प्रकाश के साथ ही उसकी तेजस्विता का भी प्रकाश सब कहीं फैल गया। यह नहीं कि और तेजस्वियों की तरह, पहले उसके गुणों का हाल लोगों को मालूम होता, फिर, उसके कुछ समय पीछे, कहीं उसकी तेजस्विता प्रकट होती।

पुरुषों ही ने नहीं, स्त्रियों तक ने उसे अपना प्रीति-पात्र बनाया। उन्होंने भी उस पर अपनी प्रीति और प्रसन्नता प्रकट की। जिस तरह शरत्काल की राते निर्मल तारों के द्वारा ध्रुव का अनुगमन करती है-उसे बड़ी उत्कण्ठा से देखती हैं-उसी तरह अयोध्या की स्त्रियों ने भी अपने प्रीति-प्रसन्न नेत्रों से उसका अनुगमन किया-उसे बड़े चाव से देखा। वे उसे रास्ते में जाते देख देर तक उत्कण्ठापूर्ण दृष्टि से देखा की। स्त्रियों की बात जाने दीजिए देवी-देवताओं तक ने उस पर अपना अनुग्रह दिखाया। वह था भी सर्वथा अनुग्रहणीय। अयोध्या में सैकड़ों बड़े बड़े विशाल मन्दिर थे। उनमें देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित थीं, जिनकी पूजा-अर्चा बड़े भक्ति-भाव से होती थी। वे देवता, राजा अतिथि पर अपना अनुग्रह प्रकट करने के लिए, अपनी अपनी प्रतिमाओं के भीतर उपस्थित होकर वास करने लगे। उन्होंने कहा कि अयोध्या में राजा के पास रहने से, उस पर कृपा करने के बहुत मौके मिलेंगे; दूर रहने से यह बात न होगी। इसी से उन्होंने, अयोध्या में, अपनी मूर्तियों के भीतर ही रहने का कष्ट उठाया।

राजा अतिथि का राज्याभिषेक हुए अभी बहुत दिन न हुए थे। अभी उसके बैठने की वेदी पर पड़ा हुआ अभिषेक का जल भी न सुख पाया था। परन्तु इतने ही थोड़े समय में उसका प्रखर प्रताप समुद्र के किनारे तक