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रघुवंश।


पहुँच कर बेतरह तपने लगा। एक तो कुलगुरु वशिष्ठ के मन्त्र हो,अपने प्रभाव से, उसके सारे काम करने में समर्थ थे। दूसरे, उस धनुषधारी के शरों की शक्ति भी बहुत बढ़ी चढ़ी थी। फिर भला, उन दोनों के एकत्र होने पर, संसार में ऐसी कौन साध्य वस्तु थी जो उसे सिद्ध न हो सकती ?

अतिथि अद्वितीय न्यायी था। धर्मज्ञों का वह हृदय से आदर करता था। धर्मशास्त्र के पारङ्गत पण्डितों के साथ बैठ कर, प्रति दिन, वह स्वय' ही वादियों और प्रतिवादियों के पेचीदा से भी पेचीदा अभियोग सुन कर उनका फैसिला करता था। इस काम में वह आलस्य को अपने पास तक न फटकने देता था।

अपने कर्मचारियों और सेवकों पर भी उसका बड़ा प्रेम था। वे भी उसे भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। जो कुछ उन्हें माँगना होता था, निःसङ्कोच वे माँग लेते थे। उनकी प्रार्थनाओं को प्रसन्नतापूर्वक सुन कर वह इस तरह उनकी पूर्ति करता था कि प्रार्थियों को शीघ्र ही उनका वाञ्छित फल मिल जाता था। अतएव उसके सारे अधिकारी, कर्मचारी और सेवक उसके क्रीतदास से हो गये। यही नहीं, प्रजा भी उस पर अत्यन्त अनुरक्त हो गई। सावन के महीने की बदौलत नदियाँ जैसे बढ़ जाती हैं वैसे ही अतिथि के पिता कुश की बदौलत उसकी प्रजा की बढ़ती हुई थी। परन्तु पिता के अनन्तर जब अतिथि राजा हुआ तब उसके राज्य में, भादों के महीने में नदियों ही की तरह, प्रजा की पहले से भी अधिक बढ़ती हो गई।

जो कुछ उसने एक दफे मुँह से कह दिया वह कभी मिथ्या न हुआ। जो वस्तु जिसे उसने एक दफे दे डाली उसे फिर कभी उससे न ली। जो कह दिया सो कह दिया; जो दे दिया सो दे दिया। हाँ, एक बात में उसने इस नियम का उल्लङ्घन अवश्य किया। वह बात यह थी कि शत्रुओं को उखाड़ कर उन्हें उसने फिर जमा दिया। चाहिए यह था कि जिनको एक दफे वह उखाड़ देता उन्हें फिर न जमने देता। परन्तु, इस सम्बन्ध में, उसने अपने नियम के प्रतिकूल काम करने ही में अपना गौरव समझा। क्योंकि, शत्रु का पराजय करके उसे फिर उसका राज्य दे देना ही अधिक