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सत्रहवाँ सर्ग।


और सन्तुष्ट रक्खा । यहाँ तक कि उसने उसे अपने शरीर के सदृश समझा; जितनी परंवा उसने अपने शरीर की की उतनीहो सेना की भी। सच तो यह है कि उसकी सेना और उसकी देह दोनों तुल्य थीं भी। जिस तरह उसके पिता ने पाल पोस कर उसकी देह को बड़ा किया था उसी तरह उसने सेना की भी नित्य वृद्धि की थी। जिस तरह उसने शस्त्र-विद्या सीखी थी उसी तरह उसकी सेना ने भी सीखी थी। जिस तरह युद्ध करना वह अपना कर्तव्य समझता था उसी तरह सेना भी युद्ध' ही के लिए थी।

सर्प के सिर की मणि पर जैसे कोई हाथ नहीं लगा सकता वैसेही अतिथि की प्रभाव, उत्साह और मन्त्र नामक तीनों शक्तियों पर भी उसके शत्रु हाथ न लगा सके-उन्हें खींच न सके। परन्तु अतिथि ने अपने शत्रुओं की इन तीनों शक्तियों को इस तरह खींच लिया जिस तरह कि चुम्बक लोहे को खींच लेता है।

अतिथि के राज्य में व्यापार-वाणिज्य की बड़ी वृद्धि हुई। वणिकलोग बड़ी बड़ी नदियों को बावलियों की तरह और बड़े बड़े दुर्गम वनों को उपवनों की तरह पार कर जाने लगे। ऊँचे ऊँचे पर्वतों पर वे घर की तरह बेखटके घूमने लगे। चोरों, लुटेरों और डाकुओं का कहीं नामोनिशान तक न रह गया। चोरों से प्रजा के धन-धान्य की और विनों से तपस्वियों के तप की उसने इस तरह रक्षा की कि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जितने वर्ण और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि जितने आश्रम थे सब ने उसे अपनी अपनी सम्पत्ति और तपस्या का छठा अंश प्रसन्नतापूर्वक दे दिया।

पृथ्वी तक ने उसका अंश उसे देने में आना कानी न की। वह था पृथ्वी का रक्षक। अतएव रक्षा के बदले पृथ्वी से उसे ज़रूर कुछ मिलना चाहिए था। इसी से पृथ्वी ने खानों से उसे रत्न दिये, खेतों से अनाज दिया और वनों से हाथी दिये। इस प्रकार पृथ्वी ने अतिथि का वेतन कौड़ी कौड़ी चुका दिया।

सन्धि, विग्रह आदि छः प्रकार के गुण हैं और मूल, भृत्य प्रादि छः प्रकार के बल भी हैं। कात्तिकेय के समान पराक्रमी राजा अतिथि को इन गुणों और इन बलों के प्रयोग का उत्तम ज्ञान था। अपनी अभीष्ट-सिद्धि