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रघुवंश।


के लिए जिस समय जिस गुण या जिस बल के प्रयोग की आवश्यकता होती थी उस समय उसी का वह प्रयोग करता था। इस कारण उसे सदा ही सफलता होती थी। गुणों और बलों की तरह साम, दान आदि चार प्रकार की राजनीतियों की प्रयोग-विधि का भी वह उत्तम ज्ञाता था। मन्त्री, सेनापति, कोशाध्यक्ष आदि अट्ठारह प्रकार के कर्मचारियों में से जिसके साथ जिस नीति का अवलम्बन करने से वह कार्य-सिद्धि की विशेष "सम्भावना समझता था उसी को काम में लाता था। फल यह होता था कि जिस उद्देश से जो काम वह करता था उसमें कभी विन्न न आता था।

राजा अतिथि युद्ध-विद्या में भी बहुत निपुण था। वह कूट-युद्ध और धर्म-युद्ध दोनों की रीतियाँ जानता था। परन्तु महाधार्मिक होने के कारण उसने कभी कूट-युद्ध न किया; जब किया तब धर्म-युद्ध ही किया। जीत भी सदा उसी की हुई। बात यह है कि जीत वीर-गामिनी है। जो वीर होता है उसके पास वह-अभिसारिका नायिका की तरह-आपकी चली जाती है। अतिथि तो बड़ा ही शूरवीर था। अतएव, हर युद्ध में, जीत स्वयं ही जा जा कर उसके गले पड़ी। परन्तु जीत को बहुत दफ़ उसके पास जाने का कष्ट ही न उठाना पड़ा। राजा अतिथि का प्रताप-वृत्तान्त सुन कर ही उसके शत्रुओं का सारा उत्साह भन्न हो गया। अतएव अतिथि को उनके साथ युद्ध करने की बहुत ही कम आवश्यकता पड़ी। युद्ध उसे प्रायः दुर्लभ सा होगया। मद की उग्र गन्ध के कारण मतवाले हाथी से और हाथी जैसे दूर भागते हैं वैसे ही अतिथि के शत्रु भी उसके प्रतापपुञ्ज की प्रखरता के कारण सदा उससे दूर ही रहे। उन्होंने उसका मुकाबला ही न किया।

बहुत बढ़ती होने पर सागर और शशाङ्क दोनों को क्षीणता प्राप्त होती है। उनकी बढ़ती सदा ही एक सी नहीं बनी रहती। परन्तु राजा अतिथि की बढ़ती सदा एक रस ही रही। चन्द्रमा और महासागर की वृद्धि का तो उसने अनुकरण किया; पर उनकी क्षीणता का अनुकरण न किया। वह बढ़ कर कभी क्षीण न हुआ।

अतिथि की दानशीलता भी अद्वितीय थी। कोई भी साक्षर सज्जन, चाहे वह कितना ही दरिद्री क्यों न हो, यदि उसके पास याचक बन कर