ने बहुत ही अच्छी तरह से किया है । कालिदास की पृथ्वी ऐसी सुगमता से स्वर्ग में जा मिलती है कि पाठकों को दोनों की सीमा का मेल मालूम ही नहीं पड़ता। पहले अङ्क में कवि ने विषय-वासना-विवश शकुन्तला के अधःपतन को छिपाने की चेष्टा नहीं की। युवावस्था के कारण नई नई बाते जो होती हैं उन सबका कवि ने चित्र सा खींच दिया है। यह शकुन्तला के भोलेपन का प्रमाण है। दुष्यन्त को देखने से उसके हृदय में प्रेम-सम्बन्धी जो जो भाव आविर्भूत हुए उनसे सामना करने के लिए वह तैयार न थी। वह यह न जानती थी कि ऐसे अवसर पर अपने चित्त की वृत्तियों को मैं कैसे रोकूँ, और अपने हृद्रत भावों को मैं कैसे छिपाऊँ। वह प्रेम के प्रपञ्च से बिलकुल ही अपरिचित थी। ऐसे मौके के लिए जो
शस्त्रास्त्र दरकार होते हैं वे उसके पास न थे। इससे उसने न तो अपने
हृदय के भावों पर ही अविश्वास किया और न अपने प्रेमी दुष्यन्त के
व्यवहार ही पर। जैसे उसके आश्रम की मृगियाँ भय से एकदम अपरिचित
थीं वैसे ही वह आश्रमवासिनी कन्या भी इस तरह की आपत्तियों से
बिलकुल अनजान थी।
प्रथम अङ्क में दुष्यन्त और शकुन्तला के बीच कामुक और कामिनी के नाते जो प्रीति हुई है उसकी असारता, और अन्तिम अङ्क में भरत के माता-पिता के रूप में जो प्रीति हुई है उसकी सारता कवि ने दिखाई है। पहला अङ्क चमक-दमक से भरा हुआ है। कहीं एक संन्यासी की कन्या खड़ी है। कहीं उसकी दो सखियाँ इधर उधर दौड़ रही हैं। कहीं वन की लतायें नवीन पल्लवों और कलियों से युक्त अपूर्व शोभा धारण कर रही हैं; कहीं वृक्ष की ओट से राजा इन सब दृश्यों को देख रहा है। परन्तु, अन्तिम अङ्क में, मरीचि के आश्रम का दृश्य कुछ और ही है। वहाँ पर शकुन्तला भरत की माता और धर्म की प्रत्यक्ष-मूर्ति की तरह निवास करती है। वहाँ कोई सखी-सहेली वृक्षसेचनादि नहीं करती और न कोई हरिण के छोटे छोटे बच्चों ही को खिलाती है। वहाँ केवल एक छोटा लड़का अपने भोले भाले अनोखे ढंग से आश्रम को सुशोभित कर रहा है। वह उस आश्रम के वृक्ष, लता, फल, फूल आदि सब के सौन्दर्य और माधुर्य को अपने में ही एकत्र सा कर लेता है। वहाँ की स्त्रियाँ