पृष्ठ:रघुवंश.djvu/४१

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भूमिका।


भी उसी चञ्चल बालक के लाड़-प्यार में लगी रहती हैं। जब शकुन्तला रङ्गशाला में आती है तब शुद्धहृदया, प्रायश्चित्तपरायणा, पीतवदना और मलिनवसना देख पड़ती है। बहुत दिनों के प्रायश्चित्त ने दुष्यन्त के पहले मिलाप के कलङ्क को एकदम धो डाला है। अब वह वात्सल्य -भाव से पूर्ण है। अब वह माता और गृहिणी में परिणत हो गई है। ऐसी दशा में कौन उसको अस्वीकार कर सकता था ?

शकुन्तला और कुमारसम्भव दोनो में कवि ने साफ़ साफ़ यह दिखा दिया है कि धर्मावलम्बी होने से सौन्दर्य चिरस्थायी होता है; संयमशील और हितवर्द्धक प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ है; निग्रह न होने से वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। महाकवि कालिदास ने केवल विषय-विलास को ही प्रेम का उद्देश नहीं माना। उन्होंने साफ़ कह दिया है कि प्रेम का यथार्थ उद्दश परोपकार है। इस नाटक से यह शिक्षा मिलती है कि दाम्पत्य-प्रेम जब तक अपने ही में संकुचित रहता है। जब तक वह परोपकारी नहीं होता; जब तक समाज, पुत्र, कन्या आदि पर उसका असर नहीं पड़ता--तब तक उसे निष्फल और क्षणभङ गुर समझना चाहिए।

भारतवासियों के दो अनोखे सिद्धान्त हैं-एक हितकारी गृहस्थाश्रम का बन्धन, दूसरा आत्मा की स्वतन्त्रता। संसार की कई एक जातियों, धर्मों और देशों से भारतवर्ष का सम्बन्ध है। वह किसी को अलग नहीं कर सकता। परन्तु तपस्या के उच्च आसन पर वह अकेले ही शोभित है। कालिदास ने इन दोनों सिद्धान्तों का घनिष्ठ सम्बन्ध अच्छी तरह दिखाया है। उन्होंने मरीचि के आश्रम के छोटे छोटेलड़कों का सिंह के बच्चों के साथ खेलना लिखा है। संन्यास और गृहस्थाश्रम का मेल, कालिदास से अच्छा और शायद ही किसी ने दिखाया हो।

संन्यासियों की कुटी के आधार पर कालिदास ने गृहस्थ का घर बनाया है। उन्होंने दाम्पत्य-प्रेम को विषय के पक्ष में जाने से बचाया है और उसे संन्यासोचित ऊँचा आसन दिया है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध कठिन नियमों से जकड़ा हुआ है। कालिदास ने उस बन्धन के सम्बन्ध को सौन्दर्य के तत्व से भी सही सिद्ध किया है। कालिदास ने नम्रता, धर्म और माधुर्य्य मिले हुए सौंदर्य को ही पूज्य