पृष्ठ:रघुवंश.djvu/४३

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भूमिका।


त्याग की उत्तम मूर्ति बना सके तो उसका काव्य निःसन्देह बहुत ही हृदयहारी होगा। किन्तु आत्मत्याग के जैसे दृष्टान्त संसार में दृष्टिगोचर होते हैं उनकी अपेक्षा यदि कवि ऐसे दृष्टान्तों को अधिकतर मनोज्ञ बना सके तो उसकी सृष्टि स्वाभाविक सृष्टि की अपेक्षा समधिक चमत्कारिणी और आह्लाददायिनी होगी। इस चमत्कारिणी कवि-सृष्टि में यदि कुछ भी स्वभाव-विरुद्ध, अर्थात् अस्वाभाविक, न होगा तभी वह सृष्टि सवांश में निरवद्य होगी। स्वभाव में जो बात सोलह आने पाई जाती है उसे कवि अठारह आने कर सकता है। परन्तु स्वभाव में जिस वस्तु का अस्तित्व एक आना भी नहीं उसकी रचना करने से यही सूचित होगा कि कवि में नैपुण्य का सर्वथा अभाव है। स्वभावानुरूप चरित्र-सृष्टि करने से भी कवि की तादृश प्रशंसा नहीं। क्योंकि, ऐसी सृष्टि से कवि-सृष्टि का उत्कर्ष नहीं सूचित होता। उससे समाज का उपकार नहीं हो सकता। जो व्यवहार हम लोग प्रति दिन संसार में अपनी आँखों से देखते हैं उन्हीं का प्रतिबिम्ब यदि कवि-सृष्टि में देखने को मिला-उन्हीं का यदि पुनदर्शन प्राप्त हुआ तो उसमें विशेषता ही क्या हुई ? जिस काव्य से संसार का उपकार-साधन न हुआ वह काव्य उत्तम नहीं कहा जा सकता। समुद्र के किनारे बैठ कर अस्तगमनोन्मुख सूर्य की शोभा देखना बहुत ही आनन्ददायक दृश्य है। पर्वत के शिखर से अधोगामिनी नदी या अधोदेश-वर्तिनी हरितवसना पृथ्वी का दर्शन सचमुच बड़ाही आह्लादकारक व्यापार है। अपनी प्रतिभा के बल पर कवि इन दोनों प्रकार के दृश्यों की तद्वत्मू र्तियाँ निर्मित कर सकता है। परन्तु उनके अवलोकन से क्षणस्थायी आनन्द के सिवा दर्शकों और पाठकों का और कोई हितसाधन नहीं हो सकता। उससे कोई शिक्षा नहीं मिल सकती। जिस सृष्टि से आमोद, प्रमोद के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं वह काव्य उत्कृष्ट नहीं। संसार में ऐसे संख्यातीत पदार्थ हैं जिनसे क्षण भर के लिए चित्त का विनोद हो सकता है-हृदय को आह्लाद प्राप्त हो सकता है। फिर काव्य की क्या आवश्यकता ? अतएव स्वीकार करना पड़ेगा कि पाठकों के आमोद-विधान के सिवा काव्य का और भी कुछ उद्देश है। परन्तु वह उद्देश काव्य-शरीर के अन्तर्गत इतना छिपा हुआ होता है कि पाठकों को