पृष्ठ:रघुवंश.djvu/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
भूमिका।


वस्तु के सौन्दर्य को ही यथार्थ सौन्दर्य कह सकते हैं। वही कवि-सृष्टि का परमोत्कर्ष है। अन्यथा, यदि और बातों की उपेक्षा करके नायिका के चिकुर-वर्णन से ही सर्ग का अधिकांश भर दिया जाय तो उसमें सौन्दर्य आ कैसे सकेगा ? उससे तो उल्टा विरक्ति उत्पन्न होगी।

सृष्टि-नैपुण्यही कवि का प्रथम और प्रधान गुण है। उस सृष्टि नैपुण्य के किसी अंश में त्रुटि आजाने से काव्य की जैसे अङ्गहानि होती है वैसे ही लोक-शिक्षारूपी जिस उच्च उद्देश-साधन के इरादे से कवि काव्यप्रणयन करता है उसकी सिद्धि में भी व्याघात आता है। जो कवि केवल दस पाँच श्लोकों की रचना करके किसी पदार्थ का केवल बाहरी सौन्दर्य दिखाता है उसका आसन अधिकांश निरापद रहता है। जो लोग बाहरी सौन्दर्य के बीच में वर्णनीय पदार्थ को स्थापित करके, इसी बाहरी सौन्दर्य के प्रकाश द्वारा उसे प्रकाशित करते हैं उनका काम भी उतना दुष्कर नहीं। किन्तु जो कवि बाहरी सौन्दर्य को दूर रख कर, वर्णीय वस्तु के केवल भीतरी भाग पर दृष्टि रखता है-वेशभूषा के विषय में उदासीन रह कर भूषित व्यक्ति के हृदय की ही तरफ़ दृष्टि-क्षेप करता है, अर्थात् जो एक सम्पूर्ण विराट मूति की सृष्टि करके तद्वारा समाज को शिक्षा देना चाहता है-उसका आसन बड़ा ही समस्या-पूर्ण समझा जाता है। उसे बात बात पर, पद पद पर, अक्षर अक्षर पर, समाज की अवस्था की भावना करनी पड़ती है-लोकहितैषणा से प्रणोदित होना पड़ता है। जो बात समाज के लिए अमङ्गलकर है, जिसकी आलोचना से समाज का प्रकृत हित-साधन नहीं होता, उसका वह परित्याग करता है। इसी से हमारे आर्य-साहित्य में लेडी मैकबेथ और ओथेलो का चित्र नहीं पाया जाता। जिस वस्तु का सर्वांश उत्तम है-जो सर्वथा सत् है-उसी की सृष्टि होनी चाहिए।

महाकवि कालिदास के श्रेष्ठ काव्य, अथवा संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य, रघुवंश के प्रत्येक अक्षर में यह सत्य विद्यमान है। लोक-शिक्षोपयोगी बातों से रघुवंश आद्यन्त परिपूर्ण है। देवता और ब्राह्मण में भक्ति, गुरु के वाक्य में अटल विश्वास, मातृरूपिणी पयखिनी धेनु की परिचर्या, भिक्षार्थी अतिथि की अभिलाषपूर्ति के लिए धराधीश राजा की व्याकुलता,