पृष्ठ:रघुवंश.djvu/४९

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भूमिका।

राजा साहब के अनुवाद के बाद, दूसरा गद्यात्मक अनुवाद पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र का है। इस अनुवाद में अनुवादक महोदय ने ऊपर तो मूल श्लोक दिया है, उसके नीचे संस्कृत में अन्वय, उसके नीचे संस्कृत ही में वाच्यपरिवर्तन और उसके भी नीचे संस्कृत ही में श्लोक का भावार्थ। अन्त में आपने हिन्दी अनुवाद भी दिया है। पर यह हिन्दी अनुवाद राजा लक्ष्मणसिंहजी के अनुवाद के ही ढंग का है। ऊपर राजा साहब के किये हुए रघुवंश के पहले श्लोक का अनुवाद दिया जा चुका है। अब उसी का अनुवाद, मिश्र जी का किया हुआ, देखिए:-

"मैं वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत् के माता-पिता पार्वती शिव को प्रणाम करता हूँ।"

राजा साहब और मिश्रजी के अनुवाद में भेद इतना ही है कि मिश्रजी के अनुवाद में 'नाई की जगह 'समान' शब्द है और 'वन्दना' की जगह 'प्रणाम' है। इसके सिवा शब्दों का क्रम भी कुछ बदला हुआ है। अतएव उनकी भाषा राजा साहब की भाषा से कुछ अच्छी होगई है। बस, और कोई भेद नहीं। मिश्रजी ने भी अन्वय के अनुसार ही अनुवाद किया है। और, आपका भी अनुवाद "भाषा के ज्ञाता तथा परीक्षा देनेवाले विद्यार्थियों के निमित्त है। विद्यार्थियों के सुभीते के लिए आपने पहले सात सों के आवश्यक पदों की व्याकरण-प्रक्रिया भी लिख दी है।

अच्छा, तो जो लोग न तो विद्यार्थी ही हैं और न भाषा के ज्ञाता ही हैं (ज्ञाता का अर्थ हम यहाँ पर धात्वर्थ से अधिक व्यापक लेते हैं) उनके लिए फिर भी एक अनुवाद की आवश्यकता शेष रहती है-ऐसे अनुवाद की जिसे थोड़ी हिन्दी जाननेवाले लोग भी आसानी से पढ़ कर कालिदास का आशय समझ जाय। इसी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए यह अनुवाद प्रकाशित किया जाता है।


इस अनुवाद के सम्बन्ध में निवेदन।

इस अनुवाद में प्रत्येक पद्य का आशय विस्तारपूर्वक लिखा गया है। आवश्यकता के अनुसार कहीं विस्तार अधिक है, कहीं कम है। जहाँ थोड़े ही शब्दों से कवि का आशय अच्छी तरह समझाया जा सका है वहाँ विशेष विस्तार नहीं किया। पर जहाँ विस्तार की आवश्यकता थी वहाँ