पृष्ठ:रघुवंश.djvu/५०

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इस अनुवाद के सम्बन्ध में निवेदन।


अधिक शब्द प्रयोग करने में सङ्कोच भी नहीं किया गया। उदाहरण के लिए पहले ही पद्य का अनुवाद देखिए। राजा साहेब और मिश्रजी ने उसका जैसा शब्दार्थ लिखा है वह ऊपर उद्धृत हो चुका है। उसी का भावार्थ, जैसा कि इस अनुवाद में है, नीचे दिया जाता है:- .

जिस तरह वाणी और अर्थ एक दूसरे को छोड़ कर कभी अलग अलग नहीं रहते उसी तरह संसार के माता-पिता, पार्वती और परमेश्वर, भी अलग अलग नहीं रहते; सदा साथ ही साथ रहते हैं। इसीसे मैं उनको नमस्कार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे शब्दार्थ का अच्छा ज्ञात हो जाय। मुझ में लिखने की शक्ति भी आ जाय और जो कुछ मैं लिखू वह सार्थक भी हो --मेरे प्रयुक्त शब्द निरर्थक न हों। इस इच्छा को पूर्ण करने वाला उमा-महेश्वर से बढ़ कर और कौन हो सकता है ? यही कारण है जो मैं और देवताओं को छोड़ कर, इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में, उन्हीं की वन्दना करता हूँ।

यह विस्तार इसलिए किया गया है जिसमें पढ़ने वाले कालिदास का भाव अच्छी तरह समझ जाये। इस उद्देश की सिद्धि के लिए सारे रघुवंश का मतलब कथा के रूप में लिख दिया गया है; पर प्रत्येक सर्ग की कथा अलग अलग रक्खी गई है। यदि कोई पद्य अपने पास के किसी पद्य से कुछ असंलग्न सा मालूम हुआ है तो उसका भावार्थ लिखने में दो चार शब्द अपनी तरफ़ से बढ़ा भी दिये गये है।

इस अनुवाद में एक बात और भी की गई है। रघुवंश में कालिदास की कुछ उक्तियाँ ऐसी भी हैं जिनमें शृङ्गार रस की मात्रा बहुत अधिक है। उनका अनुवाद या तो छोड़ दिया गया है या कुछ फेर फार के साथ कर दिया गया है। परन्तु उन्नीसवें सर्ग को छोड़ कर शेष ग्रन्थ में ऐसे स्थल दोही चार हैं, अधिक नहीं। अतएव, इससे कालिदास के कथन के रसा-स्वादन में कुछ भी व्याघात नहीं आ सकता। यह इसलिए किया गया है जिसमें आबालवृद्ध, स्त्री-पुरुष, सभी इस अनुवाद को सङ्कोच-रहित होकर पढ़ सके।

ऊपर जिन दो अनुवादों का उल्लेख किया गया उनसे इस अनुवाद में कहीं कहीं कुछ भेद भी है। एक उदाहरण लीजिए। रघुवंश के सातवें सर्ग का अट्ठाईसवाँ श्लोक यह है:-

तो स्नातकैबन्धुमता च राज्ञा
पुरन्ध्रिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम्।